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260 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
यह भी है कि यह मूर्ति रामायण-काल की है। जो भी हो, मूर्ति प्रशान्त मुद्रा में भव्य एवं अच्छी हालत में है। गोमटेश्वर की मूर्ति के बाद जो ऊँची मूर्तियाँ श्रवणबेलगोल में हैं, उनमें इस मूर्ति का स्थान दूसरा है । इस मन्दिर का 1979 ई. में जीर्णोद्धार किया गया है। मन्दिर की छत और दीवालों पर सुन्दर चित्रकारी धुंधली एवं अस्पष्ट है । मन्दिर 10वीं-11वीं सदी का अनुमान किया जाता है।
___ महानवमी मण्डप-उपर्युक्त मन्दिर के पास ही दो महानवमी मण्डप हैं। ये चार-चार स्तम्भों पर आधारित हैं। इनकी ऊँचाई लगभग 15 फुट है। दोनों में शिलालेख हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उत्तरी मण्डप का निर्माण 1176 ई. में आचार्य नयकीर्ति के समाधि-मरण की स्मृति में मन्त्री नागदेव ने कराया था। दक्षिणी मण्डप में आचार्य देवकीर्ति का स्मारक है। सन् 1313 ई. में आचार्य शुभचन्द्र की स्मृति स्वरूप एक शिलालेख दक्षिणी मण्डप में जोड़ा गया।
दशहरे से पहले, नवमी के दिन यहाँ भगवान की पूजन की एक विशेष परम्परा रही
भरतेश्वर प्रतिमा-महानवमी मण्डप के पश्चिम में और उपर्युक्त कक्ष के पास एक खुले स्थान पर लगभग 9 फुट ऊँची एक मूर्ति (चित्र क्र. 96) है जो घुटनों से नीचे जमीन (चट्टान) में ही है । अनुश्रुति इसे बाहुबली के ज्येष्ठ भ्राता भरत की मूर्ति बताती है । मूर्ति के वक्षस्थल पर पाँच गोल निशान हैं और इसी प्रकार के गोल निशान मूर्ति के हाथों पर भी हैं। मूर्ति पर आघात करने से कांसे की-सी आवाज़ निकलती थी, इस कारण स्थानीय बच्चों ने इसे मूर्ति की आवाज़ सुनने का खेल बना लिया था। उन्हीं की शरारत के कारण ये निशान मूर्ति पर पड़ गए हैं। इसलिए अब मूर्ति के चारों ओर काँटेदार तार लगा दिए गए हैं।
भरतेश्वर की मूर्ति को लेकर विद्वानों ने तरह-तरह की अटकलें लगाई हैं । कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों का यह मत है कि मूर्ति अधूरी छोड़ दी गई। बात अविश्वसनीय लगती है। जिस चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ बसदि में पार्श्वनाथ की लगभग 15 फुट ऊँची सुन्दर मूर्ति गोमटेश्वर की मूर्ति से भी प्राचीन हो, जिस कर्नाटक में अत्यन्त्र भी सुन्दर और ऊँची बाहुबली मूर्तियाँ (ऐहोल, बादामी) गोमटेश्वर से भी पुरानी मौजूद हों, वहाँ इस मूर्ति के निर्माण के लिए क्या कोई ऐसा शिल्पी लगाया गया होगा जिसे अनुपात का ज्ञान ही न हो और वह इस प्रकार काम करे कि मूर्ति घुटनों तक ही बने ? मामूली शिल्पी भी ऐसा नहीं करेगा। वह पहले अपना माप स्थिर करेगा। जैन मूर्ति-कला सम्बन्धी ग्रन्थों में भी अनुपात दिए रहते हैं। फिर कौन ऐसा श्रद्धालू होगा जिसने एक अनाड़ी शिल्पी को काम पर लगाकर अधूरी मूर्ति के कारण अपने को अभागी माना होगा? यदि घुटनों से नोचे पैरों, उनकी उँगलियों आदि का तक्षण शेष रह गया होता तो भी इसे अधूरी मान सकते थे। किन्तु घुटनों से नीचे तो पहाड़ी सतह की शिला आ गई है। इससे यह अनुमान सही है कि यह मूर्ति बनवाई ही घुटनों तक है।
मूर्ति से कुछ ही दूरी पर एक शिलालेख है उसमें इतना ही पढ़ा जाता है कि..."शिष्यर अरिडोनेमिरु माडिसिद्दर् सिद्धं" अर्थात् ".. के शिष्य अरिष्टनेमि ने बनवाया।" इस लेख से कुछ विद्वानों ने अनुमान कर लिया कि शिल्पी का नाम अरिष्टनेमि था और उसने गोमटेश्वर की मूर्ति बनाने से पहिले भरतश्वर की इस मूर्ति को प्रयोग के रूप में बनाया होगा। प्रश्न उठता