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________________ श्रवणबेलगोल / 261 है कि क्या यह प्रयोग विध्यगिरि की किसी शिला पर नहीं हो सकता था ? क्या प्रयोग के लिए नौ फुट ऊँची मूर्ति बनाना आवश्यक था ? और वह भी तो आदर्श मूर्ति नहीं बन सकी ! शिल्पी रूप-रेखा अवश्य बनाते हैं (जैसे खजुराहो के मन्दिरों में कहीं-कहीं पत्थरों पर देखने को मिलती हैं किन्तु अथक श्रम करके नौ फुट ऊँची अधूरी प्रतिमा ही क्यों बनाते ! कुछ जैन विद्वान् या पर्यटक यह मान लेते हैं कि यह एक खण्डित मूर्ति है । किन्तु प्रस्तुत लेखक का यह सुविचारित मत है कि न तो यह मूर्ति अधूरी है और न ही खण्डित | इसका सम्बन्ध भरत-बाहुबली के अख्यान से है जिसके अनुसार बाहुबली ने भरत को धीरे से नीचे उतारकर ऊँची भूमि पर विराजमान कर दिया था (आदिपुराण), और उसका परिणाम यह हुआ था कि भरत शर्म से मानो जमीन में गड़ गए ( हिन्दी भाषा में 'शर्म से जमीन में गड़ जाना' मुहावरा बहुत प्रचलित है ) । इसलिए यह मूर्ति भरत की उपर्युक्त स्थिति को सूचित करने के लिए जानबूझकर इसी प्रकार की बनाई गई है । और भी प्रमाण चाहिए तो मूर्ति के पास खड़े होकर देखिए। बाहुबली सामने की पहाड़ी पर बहुत ऊँचे खड़े हैं -- वे भाई को क्षमाकर बहुत ऊँचे उठ गएऔर भरत लज्जित हो गए । 'महाभिषेक स्मरणिका' में डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन ने पुण्यकुशलगणी के भरत - बाहुबली काव्यम् (वि. सं. 17वीं शदी) से एक श्लोक उद्धृत करते हुए लिखा है, "महाराज भरत के दण्डप्रहार से बाहुबली घुटने तक भूमि में धँस गये । जब बाहुबली ने दण्डप्रहार किया तब भरत की जो स्थिति हुई उसका अवलोकन कीजिए "आकण्ठं नरपतिर्विवेश भूमौ तद्घाताच्छरभ इवाद्रिकन्दरायाम् ॥ (बाहुबली के तीव्र प्रहार से भरत गले तक भूमि में प्रवेश कर गये, जैसे शरभ पहाड़ की गुफा में प्रवेश कर जाता है ।) अतः भरतेश्वर की यह मूर्ति प्रतीकात्मक है । विध्यगिरि पर ऋषभदेव और उनके दीक्षित पुत्र, भरत और बाहुबली मन्दिर, गोमटेश्वर महामूर्ति तथा चन्द्रगिरि की भरत - मूर्ति – ये सब मिलाकर भरत - बाहुबली आख्यान के विभिन्न प्रसंगों - परिणामों [ जैसे भरत का भी अन्त में मुनि हो जाना और बाहुबली के समान ही पूज्य होना - ( भरत मन्दिर ) ] के दृश्य रूप में इस कथानक को हमारे सामने उपस्थित करते हैं। पार्श्वनाथ बसदि ( न कि सुपार्श्वनाथ बसदि ) - उपर्युक्त भरतेश्वर मूर्ति से आगे लगभग 25 फुट लम्बा और 14 फुट चौड़ा एक छोटा मन्दिर है । वहाँ लिखा है 'सुपार्श्वनाथ बस्ती' । सम्भव है वहाँ किसी समय सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा रही हो । किन्तु वर्तमान में वहाँ पार्श्वनाथ की तीन फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। तीर्थंकर पर सात फणों की छाया है और सर्पकुण्डली पृष्ठ भाग तक प्रदर्शित है । कमलासन पर प्रतिष्ठित मूर्ति के पीछे के फलक पर दोनों ओर दो-दो व्याल एक के ऊपर एक अंकित हैं और दोनों कन्धों से ऊपर आभूषणों से अलंकृत चॅवरधारी बनाए गए हैं जो कि मूर्ति के मस्तक से ऊपर तक उत्कीर्ण हैं । उनका सुन्दर ऊँचा मुकुट भी देखने लायक है । यह ज्ञात नहीं है कि किसने और कब इस मन्दिर का निर्माण कराया ।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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