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________________ श्रवणबेलगोल / 249 विद्वानों का यह भी कथन है कि सब कुछ त्याग कर चामुण्डराय ने यहाँ पर सल्लेखना विधि से (व्रत, उपवास, त्याग करते हुए) अपना शरीर त्यागा होगा और यह स्तम्भ तथा मण्डप उन्हीं की स्मृति में बनवाया गया होगा और इसके लेख में उनके जीवन, गोमटेश्वर एवं अन्य कार्यों का विवरण रहा होगा । जो भी हो, अब तो हमें उनकी विजयों सम्बन्धी उपाधियों का ही ज्ञान इस लेख से मिल पाता है । लगभग पाँच सौ वर्ष बाद ईंट और गारे से इसकी ऊपरी मंजिल बनाई गई, ऐसा अनुमान किया जाता है । चेन्नण बसदि - त्यागद स्तम्भ से पश्चिम की ओर कुछ दूरी पर 'चेन्नण बसदि ' है । जिन्नेयन हल्लिग्राम के 1674 ई. के एक शिलालेख का कथन है : "पुट्टसामी सेट्टियर के पुत्र चेन्न समुद्रादीश्वर (चन्द्रनाथ स्वामी) के नित्य पूजोत्सव, कुण्ड और उपवन की रक्षा हेतु जिन्नेयन हल्लीग्राम दान में दिया ।" इस लेख से दो बातों का अनुमान है - या तो पहले से बनी बसदि के लिए दान दिया गया या नई बसदि को निर्मित कराकर दान दिया गया। वैसे यह मन्दिर प्राचीन लगता है। इसके सामने एक 33 फीट ऊँचा मानस्तम्भ है । उसके चारों ओर छत्रयुक्त तीर्थंकर उत्कीर्ण हैं । मौक्तिक मालाओं, हंसपंक्तियों, अश्वारोहियों और गजारोहियों का भी उत्कीर्णन है । सबसे नीचे चारों ओर यक्ष अंकित हैं । इस बसदि का प्रवेश मण्डप 24 स्तम्भों पर आधारित है और तीन ओर से खुला है । उसके सिरदल और द्वार की चौखट पर सुन्दर उत्कीर्णन है। दोनों ओर द्वारपाल हैं। गर्भगृह में पद्मासन चन्द्रप्रभ की ढाई फीट ऊँची मनोज्ञ प्रतिमा है। तीर्थंकर पर तीन छत्र, दोनों ओर यक्षयक्षी, मस्तक के दोनों ओर चँवर के चिह्न हैं । मकर-तोरण से भी प्रतिमा अलंकृत है । आसन साधारण है किन्तु उस पर लांछन (चिह्न) स्पष्ट नहीं है । कुछ विद्वानों के अनुसार यह मन्दिर आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव को समर्पित था । मन्दिर पर एक छोटा-सा शिखर भी है । 1 बसदि से पहले कुछ बड़ा-सा एक कुण्ड है। इसी प्रकार मानस्तम्भ के पास ही में एक और कुण्ड है । इस मन्दिर के बायीं ओर चन्दन का एक छोटा-सा वृक्ष है । कुल मिलाकर यह रमणीक स्थान है। चेन्नण बसदि के बाद त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ वापस लौटना चाहिए और स्तम्भ के आगे की सीढ़ियों से ऊपर की यात्रा प्रारम्भ करनी चाहिए । सिद्धर गुण्डु (सिद्धशिला ) - कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद, बायीं ओर एक ऊँची चट्टान है जिसे सिद्धशिला कहते हैं । कथानक है कि भरत चक्रवर्ती के 99 भाइयों ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी और ऋषभदेव के उपदेश से राज-पाट छोड़कर मुनि हो गए थे। इस शिला के ऊपरी भाग में यही दृश्य अंकित है । छत्रत्रयी के नीचे पद्मासन में ऋषभदेव विराजमान हैं और उनके आसपास एवं नीचे अनेक पंक्तियों में उनके वे 99 पुत्र गिने जा सकते हैं जो कि मुनि हो गए थे। इन पद्मासन मुनि आकृतियों के साथ ही कुछ कायोत्सर्ग मुनि भी उत्कीर्ण हैं । चरण - विंध्यगिरि की छोटी चट्टानों पर अनेक स्थानों पर चरण हैं । त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ से बड़े द्वार के रास्ते में दाहिनी ओर की एक चट्टान पर भी चरण बने हुए हैं ।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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