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240 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) - वेणूर की गोमटेश्वर की 35 फीट ऊँची प्रतिमा पहली मार्च 1604 ई. के दिन पहाड़ी पर प्रतिष्ठित की गई। इसके निर्माण के प्रेरक थे श्रवणबेलगोल के भट्टारक श्री चारुकीर्ति।
गोम्मटगिरि (श्रवणगट्ट) (मैसूर से लगभग 25 कि. मी.) की छोटी-सी पहाड़ी पर 18 फीट ऊँची गोमटेश्वर की प्रतिमा उसकी निर्माण-शैली के आधार पर चौदहवीं शताब्दी की की मानी जाती है।
धर्मस्थल में बाहुबली की 39 फीट ऊँची मूर्ति 1982 ई. में प्रतिष्ठित की गई है। यह भी एक पहाड़ी पर है और बहुत सुन्दर है।
होसकोरे हल्ली-कन्नबाड़ी (कृष्णराज सागर) के उस पार गंगकालीन एक गोम्मट मूर्ति है जो 18 फीट ऊँची है। मैसूर राज्य के अन्वेषण विभाग ने हाल ही में इसका अन्वेषण किया है । (डॉ. प्रेमचन्द्र जैन)
कर्नाटक की सीमा के पास कुम्भोजगिरि या बाहुबलीगिरि पर (कोल्हापुर से 20 कि. मी.) बाहुबली की 28 फीट ऊँची मूर्ति है जो कि कुम्भोज बाहुबली के नाम से विख्यात है। इसकी प्रतिष्ठा 1963 ई. में हुई थी।
एलाचार्य मुनि विद्यानन्दजी की प्रेरणा से उत्तर भारत के अनेक स्थानों में गोमटेश्वर प्रतिमाएँ स्थापित हुई हैं जिनमें फीरोजाबाद, बम्बई और इन्दौर (गोम्मटगिरि) प्रमुख हैं।
श्रवणबेलगोल का जैनमठ और भट्टारक-परम्परा यहाँ का जैन मठ सम्भवतः पिछले एक हजार वर्षों से ही एक गुरुकुल, एक अनुपम शास्त्रभण्डार, जैन संस्कृति और स्थानीय स्मारकों का जागरूक प्रहरी और धर्म-प्रचार एवं प्रभावना की सशक्त संस्था तथा अनेक उतार-चढ़ाव के युगों के बावजूद भी सदा आशावान एवं प्रेरक रहा है। प्रत्येक भट्टारक का चुनाव बड़ी खोजबीन एवं दूरदर्शिता के साथ किया जाता है। चुने जाने पर मठाधिपति या भट्टारक स्वामी की शोभा-यात्रा निकाली जाती है और पट्टाभिषेक किया जाता है जो कि हर बारह वर्ष बाद पुनः दोहराया जाता है । अभिषेक के बाद भट्टारक 'स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्ति पण्डिताचार्य' कहलाते हैं। यही नाम यहाँ के प्रत्येक भट्टारक का होता है । मूडबिद्री का मठ भी श्रवणबेलगोल मठ की एक शाखा है। वहाँ के भट्टारक भी यही नाम धारण करते हैं । भट्टारक केसरिया वस्त्र पहनते हैं और मयूरपिच्छी तथा कमण्डलु साथ रखते हैं।
श्रवणबेलगोल मठ का आधिकारिक इतिहास उपलब्ध नहीं है किन्तु कुछ शिलालेखों में यहाँ के चारुकीतियों के उल्लेख से इस संस्था की प्राचीनता सिद्ध होती है।
अनुश्रुति है कि गोमटेश्वर की मूर्ति की प्रतिष्ठापना के बाद चामुण्डराय ने यहाँ गाँव बसाया था और आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को इस क्षेत्र की रक्षा एवं प्रभावना का कार्य सौंपा था। यह बात दसवीं सदी की है।
बारहवीं सदी में दक्षिण भारत में जैन धर्म पर संकट आया था। अन्य धर्मावलम्बियों ने इस सदी और उसके बाद में जैनों पर अत्याचार किए, सामन्तों से करवाए एवं आतंक फैलाया।