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________________ श्रवणबेलगोल | 241 फलस्वरूप कुछ आचार्यों ने मुनिवेश त्याग कर जैन धर्म की रक्षा के लिए पिच्छी-कमण्डलुधारी भट्टारक वेश धारण किया तथा चमत्कार आदि के लिए शासन-देवताओं को आगे किया ताकि शेष बचे जैन भी अन्य धर्मों की-सी तड़क-भड़क पा सकें। यह भी अनुश्रुति है कि दोरसमुद्र के राजा विष्णुवर्धन के जैनों पर अत्याचार के कारण दोरसमुद्र की धरती फट गई तो वहाँ का शासन भयभीत हुआ और उसने श्रवणबेलगोल के भट्टारकजी को आग्रहपूर्वक बुलाया। उन्होंने तन्त्र-मन्त्र की साधना कर शान्ति स्थापित की। चन्द्रगिरि पर 'सवतिगन्धवारण बसदि' के शिलालेख (1131 ई.) में उल्लेख है कि विष्णवर्धन की पदमहिषी परम जिनभक्ता शान्तला द्वारा सल्लेखना ग्रहण कर स्वदेह त्याग करने की खबर पाकर, उसकी माता माचिकब्बे ने श्रवणबेलगोल में उसी विधि से शरीर त्यागा । इससे सम्बन्धित लेख चारुकीति के लेखक-शिष्य बोकिमय्य ने लिखा था। .. पट्टमहिषी शान्तला ने षट्खंडागम की ताडपत्रीय प्रति लिखवाकर यहाँ के मठ (सिद्धान्त बसदि, सिद्धान्त ग्रन्थों के कारण) में भेंट की थी। (उस पर विष्णुवर्धन और शान्तला का चित्र भी है) जो बाद में सुरक्षा की दृष्टि से मूडबिद्री में रख दी गई थी और वहीं से प्राप्त विन्ध्यगिरि पर सिद्धर बसदि के शक संवत् 1355 (लगभग 1433 ई.) के एक शिलालेख में उल्लेख है कि चारुकीर्ति ने होय्सलनरेश बल्लाल प्रथम (1100-1106 ई.) की प्रेतबाधा दूर कर 'बल्लाल जीवरक्षक' की उपाधि प्राप्त की थी। चौदहवीं शताब्दी में ही श्रवणबेलगोल की 'मंगायि बसदि' का निर्माण चारुकीर्ति पण्डिताचार्य के शिष्य, बेलगोल के मंगायि ने कराया था। यहाँ की भगवान शान्तिनाथ की मूर्ति भी पण्डिताचार्य की शिष्या भीमादेवी ने प्रतिष्ठित कराई थी। श्री चिदानन्द कवि के 'मुनिवंशाभ्युदय' में वर्णन है कि मैसूरनरेश चामराज ओडेयर श्रवणबेलगोल आए, उन्होंने विभिन्न शिलालेख पढ़वाये, दानों की जानकारी प्राप्त की और यह जानकर कि यहाँ के चारुकीर्ति चन्नरायपट्टन के सामन्त के अत्याचारों के कारण भल्लातकी पुर (आधुनिक गेरुसोप्पे) में रहने लगे हैं तो उन्होंने उन्हें आदर सहित वापस बुलवाया और दान आदि से सम्मानित किया। सन् 1634 ई. के ताम्रपत्रीय लेख में यह लिखा है कि कुछ महाजनों ने मठ की संपत्ति गिरवी रख ली थी। उपर्युक्त नरेश चामराज ओडेयर को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने महाजनों को बुलवाकर कहा कि वे स्वयं यह कर्ज चुका देंगे। तब महाजनों से समस्त संपत्ति दान करा दी। राजा ने यह दान कराया और यह राजाज्ञा निकाल दी कि "जो मठ की संपत्ति को गिरवी रखेगा और जो उस पर कर्ज देगा वे दोनों समाज से बहिष्कृत किए जाएंगे। जिस राजा के समय में ऐसा हो उसे न्याय करना चाहिए और जो कोई इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा वह बनारस में एक सहस्र कपिल गायों और ब्राह्मणों की हत्या का भागी होगा।" व्यापारियों आदि द्वारा मठ को दिए गये दानों से सम्बन्धित अनेक लेख हैं। मंत्रियों, सेनापतियों आदि ने भी यहाँ दान दिए हैं। सन् 1856 में चारुकीति के शिष्य सन्मतिसागर वर्णी ने भण्डारी बसदि के लिए तीर्थकर
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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