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________________ 232 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) इसी प्रकार सम्राट अशोक ने भी अपने पितामह की तपोभूमि चन्द्रगिरि की यात्रा की थी। जैन परम्परा और श्रवणबेलगोल के शिलालेख यह उल्लेख करते हैं कि आचार्य भद्रबाह और चन्द्रगप्त मौर्य दोनों ही ने चन्द्रगिरि पर तपस्या की थी।... श्रवणबेलगोल के लगभग 600 ई. के शिलालेख में भद्रबाहु और प्रभाचन्द्र का उल्लेख है। करीब 650 ई. के एक शिलालेख में 'भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त-मुनीन्द्रयुग्म' कहा गया है। शक संवत् 1085 के एक अन्य लेख में 'भद्रबाहु के चन्द्र प्रकाशोज्ज्वल शिष्य चन्द्रगुप्त' कथन किया गया है। ई. सन् 1163 या शक संवत् 1050 के शिलालेख में भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त का उल्लेख कर कहा गया है कि वनदेवता भी चन्द्रगुप्त की सेवा किया करते थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि मुनि रूप में भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त ने एक ही समय में श्रवणबेलगोल में तपस्या की थी। आचार्य गोवर्धन एवं आचार्य भद्रबाहु श्रवणबेलगोल की चन्दगप्त बसदि में पत्थर की जाली से युक्त 90 पाषाण-फलकों पर आचार्य गोवर्धन, आचार्य भद्रबाहु के विहार और चन्द्रगुप्त के मुनि होने की कथा उत्कीर्ण की गई है। इसलिए इन दोनों आचार्यों (जो चन्द्रगुप्त के समकालीन थे) के जीवन का संक्षिप्त वृत्तान्त भी जान लेना चाहिए। अन्तिम जैन तीर्थंकर महावीर का निर्वाण आज से (1988 ई. में) 2515 वर्ष पूर्व या ईस्वी सन् से 527 पहले हुआ था। इन चौबीसवें तीर्थंकर ने कोई ग्रन्थरचना नहीं की किन्तु उनके अत्यन्त प्रतिभाशाली शिष्यों या गणधरों ने महावीर के उपदेशों को सुनकर जिन ग्रन्थों की रचना की वे श्रुत (सुने हए) कहलाते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान के धारी तीन केवली महावीर के पश्चात हए हैं। ये हैं-गौतम, सुधर्मा और जम्बूस्वामी। इनका काल 62 वर्ष है। भगवान महावीर के उपदेशों को बारह अंगों में विभाजित किया गया था। केवल इन्हीं का ज्ञान रखने वाले आचार्य 'श्रुतकेवली' कहलाए । ये पाँच हुए हैं और इनका कुल समय 100 वर्ष है। विष्णुकुमार, नन्दिमित्र और अपराजित के बाद, चौथे श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य हुए हैं । अन्तिम तथा पाँचवें श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। गोवर्धनाचार्य के सम्बन्ध में यह उल्लेख पाया जाता है कि एक बार वे बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की निर्वाणभूमि ऊर्जयन्तगिरि (आजकल का गिरनार पर्वत) की वन्दना के उद्देश्य से विहार करते हुए अपने मुनि-संत्र के साथ पुण्ड्रवर्धन देश के कोटिनगर में पधारे । वहाँ उन्होंने एक उद्यान में एक बालक को एक के ऊपर एक गोटियाँ रखते देखा। उसकी इस प्रतिभा को देखकर उन्होंने यह धारणा बनाई कि यह बालक किसी दिन 'तपोनिधि' एवं श्रुतकेवली होगा। इस बालक का नाम भद्रबाहु था। वह कोटिपुर, जिसका पुराना नाम देवकोट्ट था, के राजा पद्मरथ के द्विज सोमशर्मा और सोमश्री का पूत्र था। गोवर्धनाचार्य उस बालक के पिता के पास गए और उनसे वह बालक अपने संरक्षण में माँग लिया। पिता ने आचार्य को उसे अपने साथ ले जाने की अनुमति दे दी। गोवर्धनाचार्य ने उसे 'नानाशास्त्रार्थकोविद' बनादिया। उनका वह शिष्य पुनः अपने पिता के पास आया और दीक्षा ले लेने की उनसे अनुमति प्राप्त की। गोवर्धनाचार्य के साथ रहकर भद्रबाहु 'महावैराग्यसम्पन्न' और ज्ञान में तीव्रबुद्धि हो गए और
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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