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________________ श्रवणबेलगोल / 231 आचार्य हरिषेण ने लिखा है भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अस्यैव योगिनः पार्वे दधौ जैनेश्वरं तपः ॥ चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्र प्रथमो दशपूविणाम् । सर्वसंघाधिपो जातो विसषाचार्यसंज्ञकः ।। अनेन सह संघोऽपि समस्तो गुरुवाक्यतः । दक्षिणापथदेशस्थपुन्नाटविषयं ययौ ।। (भद्रबाहु के वचन सुनकर चन्द्रगुप्त नरेश्वर ने इन्हीं योगी से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। दशपूर्वो के प्रथम ज्ञाता चन्द्रगुप्त मुनि शीघ्र ही पूरे संघ के नायक हो गये और और उनका नाम विशाखाचार्य हो गया (मतान्तर से प्रभाचन्द्र)। गुरु के वचनों को सुनकर समस्त संघ इन संघपति के साथ दक्षिणापथ देश के पुन्नाट जनपद में पहुँचा।) इसी कथा में यह भी कहा गया है कि कुछ मुनियों ने सिन्ध की ओर विहार किया और वे शिथिलाचारी हो गये। यह भी अनुश्रुति है कि चन्द्रगुप्त ने सोलह स्वप्न देखे थे (जैसे-बारह फण वाला सर्प जिसका अर्थ बारह वर्ष का अकाल था, काले हाथियों का युद्ध जिसका आशय था कि मेघ वांछित वर्षा नहीं करेंगे, आदि ।) पूछे जाने पर आचार्य भद्रबाहु ने उन स्वप्नों का फल अशुभ बताया और अकाल की सम्भावना व्यक्त की। निष्कर्ष यह कि आचार्य भद्रबाह द्वारा बारह वर्ष के अकाल की संभावना व्यक्त करने पर चन्द्रगुप्त ने राजपाट छोड़ दिया और वे मुनि हो गये। कुछ इतिहासकार जैन अनुश्रुति को सत्य मानकर इस बात से सहमत हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के अन्तिम समय में जैन मुनि-दीक्षा ले ली थी। इन इतिहासकारों में विन्सेंट स्मिथ और प्रो. राधाकुमुद मुकर्जी प्रमुख हैं। श्री एम. एस. रामस्वामी आयंगार ने भी अपनी पुस्तक 'स्टडीज़ इन साउथ इण्डियन जैनिज्म' में यह मत व्यक्त किया है कि श्रवणबेलगोल में चन्द्रगुप्त ने भद्रबाहु के बाद बारह वर्ष तप करते हुए शरीर त्यागा इसे एक ऐतिहासिक तथ्य माना जा सकता है । इसी प्रकार इस जैन अनश्रुति में, कि बारह वर्ष का अकाल पड़ा था, अविश्वास करने का कोई कारण ही नहीं है। और भी ऐसे अनेक प्रमाण हैं जिनके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि चन्द्रगुप्त ने भविष्यवाणी सुनते ही जिन-दीक्षा नहीं ली अपितु अकाल से प्रजा की रक्षा के सभी उपाय कर, उसे सुभिक्ष देशों में पहुँचाकर, अपनी आयु अल्प जानकर सम्भवतः श्रवणबेलगोल में हो दीक्षा ली । आचार्य भद्रबाहु ने उसे अपने पास रख लिया और शेष मुनियों के निर्वाह की चिन्ता से चन्द्रगुप्त को मुक्त करने के लिए, पूरे मुनि-संघ को और भी दक्षिण के प्रदेश में भेज दिया। इस प्रकार इस 'नरेश्वर' ने राजधर्म और आत्मधर्म दोनों को रक्षा की। जैन अनुश्रुति का यही अर्थ होना चाहिए कि चन्द्रगुप्त अन्त में जाकर मुनि हो गये। उन्होंने अपने रुग्ण गुरु भद्रबाहु की एक वर्ष तक सेवा की। उनके निर्वाण के बाद और बारह वर्ष तक वे मुनि रूप में श्रवणबेलगोल की उस छोटी पहाड़ी पर आत्म-साधना करते रहे जो उन्हीं के नाम पर चन्द्रगिरि कहलाती है। कहा जाता है कि उनके पुत्र बिन्दुसार ने चन्द्रगिरि पर कुछ मन्दिरों का निर्माण कराया था।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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