________________
कर्नाटक जैन धर्म: 25
प्राचीन साहित्य में पम्पापुरी कहलाती थी। अजैन तीर्थयात्री इसे पम्पाक्षेत्र कहते हैं और आज भी बालीसुग्रीव की गुफा आदि की यात्रा करने आते हैं।
आजकल की हम्पा में लगभग 26 कि. मी. के घेरे में बिखरे पड़े जैन-अजैन स्मारकों, महलों और साथ ही बहनेवाली तुंगभद्रा का परिचय इसी पुस्तक में दिया गया है। वहीं इस स्थान का रामायण काल से इतिहास प्रारम्भ कर विजयनगर साम्राज्य का इतिहास और जैनधर्म के प्रति विजयनगर शासकों का दृष्टि कोण, उनके सेनापतियों आदि द्वारा विजयनगर में ही कुन्थुनाथ चैत्यालय (आधुनिक नाम गणिगित्ति बसदि) आदि मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख किया गया है। इस वंश के द्वितीय नरेश बुक्काराय प्रथम (1365-77 ई.) ने जनों (भव्यों) और वैष्णवों (भक्तों) के बीच जिस ढंग से विवाद निपटाया उसका सूचक शिलालेख कर्नाटक के धार्मिक एवं राजनीतिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है । उसमें श्रवणबेलगोल की रक्षा और जीर्णोद्धार आदि की भी व्यवस्था की गई थी। आगे चलकर शासक देवराय की पत्नी ने श्रवणबेलगोल में 'मंगायीबसदि' का निर्माण कराया था। संगम राजा देवराय द्वितीय (1419-46 ई.) तो कारकल में गोमटेश्वर की 41 फुट 5 इंच ऊँची प्रतिमा के प्रतिष्ठा-महोत्सव में सम्मिलित हुआ था। विजयनगर मे इस वंश से पहले भी जैन मन्दिर थे, खुदाई में दो मन्दिर और भी निकले बताए जाते हैं। स्वयं इस कुल के राममन्दिर में तीर्थंकर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। यह ठीक है कि यह वंश जैन नहीं था किन्तु इसके परिवार के कुछ सदस्य जिनधर्मावलम्बी, उसके प्रति उदार, सहिष्णु और पोषक थे इसमें संदेह नहीं। मन्त्री, सेनापति में से कुछ जैन थे और उन्होंने जैन मन्दिरों का निर्माण या जीर्णोद्धार कराया था। राजा देवराज द्वितीय (1419-46 ई.) के सम्बन्ध में यह उल्लेख मिलता है कि उसने विजयनगर के 'पान-सुपारी' बाजार में एक चैत्यालय बनवाकर उसमें पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की थी।
उपर्युक्त वंश का सबसे प्रसिद्ध नरेश कृष्ण देवराय (1509-39 ई.) हआ है जो कि रणवीर होने के साथ ही साथ धर्मवीर भी था। उसने बल्लारी जिले के एक जिनालय को दान दिया था और मूडबिद्री की गुरु बसदि के लिए भी स्थायी वृत्ति दी थी। एक शिलालेख में उसने स्याद्वादमत और जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करने के साथ ही वराह को भी नमस्कार किया है।
कालान्तर में इस वंश का राज्य भी मुसलमानों के सम्मिलत आक्रमण का शिकार हुआ। राजधानी विजयनगर पांच माह तक लूटी और जलाई गई। अनेक मन्दिर-मतियाँ नष्ट हो गए। विजयनगर के विध्वंस के बाद भी इसके वंशज चन्द्रगिरि से 1465 ई. से 1684 ई तक राज्य करते रहे । उनके समय में भी हेग्गरे की बसदि, मूत्तूर की अनन्तजिन बसदि और मलेयर की पार्श्वनाथ बसदि का निर्माण या जीर्णोद्धार इन राजाओं के उपशासकों एव महालेखाकर आदि ने करवाया था।
विजयनगर (हम्पी) के जैन स्मारकों, जैनधर्म के इस क्षेत्र का प्राचीन इतिहास और विजयनगर शासकों, उनके सेनापतियों आदि का जैनधर्म से सम्बन्ध आदि विवरण के लिए इसी पुस्तक में 'हम्पी' देखिए ।
मैसूर का ओडेयर राजवंश
कर्नाटक पर शासन करने वाले बड़े राजवंशों में अन्तिम एवं सुविदित नाम ओडेयर राजवंश का है। आधुनिक मैसूर (प्राचीन महिशर, मैसूरपदन) इस वंश की राजधानी रही। इतिहासकारों का मत है कि यह वंश भी उस गंगवंश की ही एक शाखा है जो जैनधर्म के अनुयायी के रूप में कर्नाटक के इतिहास में प्रसिद्ध है । कालान्तर में इस वंश ने अन्य धर्म स्वीकार कर लिया किन्तु इसके शासकों ने श्रवणबेलगोल को हमेशा आदर की दृष्टि से देखा और उसका संरक्षक बना रहा। स्वतन्त्रता-पूर्व तक वे महामस्तकाभिषेक में सम्मलित होते रहे।