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________________ 172 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) निषधियाँ या समाधियाँ यहाँ समाधियों की अद्भुत रचना पाई जाती है (देखें चित्र क्र.76)। ऐसी रचना भारत में शायद ही कहीं हो। ये समाधियाँ अठारह मठाधिपतियों तथा दो श्रावकों की बताई जाती हैं। किन्तु लेख केवल दो ही समाधियों पर हैं । समाधियाँ तीन से लेकर आठ तल तक की हैं। इनका एक तल दूसरे तल की ढलवाँ छत के द्वारा विभक्त होता है। इस कारण ये काठमांडू या तिब्बत के पैगोडा-जैसी लगती हैं। इनकी हर मंज़िल की छत ढलावदार है। ये भारत में अपने ढंग की ही निर्मिति हैं। वार्षिक उत्सव और मेले यहाँ की तीन बसदियों के उत्सव और मेले प्रसिद्ध हैं। होस बसदि या त्रिभुवनतिलकचूडामणि नामक चन्द्रनाथ मन्दिर में प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल 14 को 'छोटा रथोत्सव' तथा पूर्णिमा के दिन 'बड़ा रथोत्सव' बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है जिसमें आसपास की हज़ारों की संख्या में जनता भाग लेती है । 'बडग बसदि' में हर साल माघ शुक्ल 13 को रथोत्सव आयोजित किया जाता है। 'हिरे बसदि' में हर वर्ष बैशाख शु. 15 को रथोत्सव होता है। यहाँ पद्मावती देवी की पूजा कराने, मनौतियाँ मनाने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं। चैत्र मास में 'लेप्पद बसदि' में यहाँ के चोटरवंशीय राजघराने के सदस्यों द्वारा भगवान का अभिषेक लकड़ी की विशाल सीढ़ियाँ बनाकर सम्पन्न किया जाता है। मूडबिद्री को संस्थाएं यहाँ की सबसे प्रमुख संस्था श्रीमती रमारानी जैन शोध संस्थान है, जिससे जैन-जनेतर विद्वान लाभ लेते हैं। सन 1965 में यहाँ 'महावीर कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय' की स्थापना 'समाज मन्दिर सभा' के प्रयत्नों से हुई। यहाँ पर जैन हायर सेकेण्डरी स्कूल भी है जो अब जैन जूनियर कॉलेज के नाम से जाना जाता है। स्कूल अपनी रजत जयन्ती मना चुका है। - मूडबिद्री न केवल एक प्रमुख जैन केन्द्र या तीर्थ अथवा शास्त्रों का अपूर्व संग्रहस्थान है अपितु उसे कवि रत्नाकर की जन्मभूमि होने का भी गौरव प्राप्त है। उनकी 'भरतेश-वैभव', 'रत्नाकर-शतक' आदि कृतियाँ प्रसिद्ध हैं। उनकी स्मृति में यहाँ 'रत्नाकर नगर' नाम की एक कालोनी बसाई गई है। वर्तमान स्थिति लगभग दस-बारह हजार की आबादी वाला यह छोटा नगर अब भी दूर-दूर के जैन तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है, यद्यपि यहाँ जैन श्रावक परिवारों की संख्या लगभग पचास ही रह गई है। वे अधिकांशतः कृषि पर निर्भर करते हैं। मुख्य उपज नारियल, काजू, सुपारी तथा चावल है । जमींदारी उन्मूल के कारण जैन श्रावकों तथा मठ को आर्थिक हानि हुई है।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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