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________________ हुमचा | 123 पंचधातु की प्रतिमाएँ थीं। पार्श्व बसदि के मुखमंडप के दक्षिण स्तम्भ पर 1062 ई. का ही एक लेख है जिसके अनुसार इस राजा ने अपने नगर में बहुत-से जिनमन्दिर बनवाये थे। उसकी पत्नी ने नोकियब्बे बसदि के सामने मकर-तोरण और बल्लिगावि में चागेश्वर नाम का मन्दिर बनवाया था और वह दानवती के रूप में प्रसिद्ध हुई थी। चन्द्रप्रभ बसदि को बाहरी दीवाल पर शिलालेख में उल्लेख है कि भुजबल सान्तरदेव शान्तलिगे ने अपनी राजधानी पोम्बुर्च में 'भुजबल सान्तर जिनालय' के लिए 1065 ई. में अपने गुरु कनकनन्दी को हरवरि ग्राम दान में दिया था। 'सूळे बसदि' के सामने मानस्तम्भ पर 1077 ई. का ही यह शिलालेख है कि वीर सान्तर के ज्येष्ठ पुत्र तैलपदेव ने, जो भुजबल सान्तर के नाम से भी प्रसिद्ध था, पट्टणसामि द्वारा निर्मित तीर्थ बसदि के लिए बीजकन् वयळ् का धन दिया था। पंचबसदि के आँगन के एक पाषाण पर 1077 ई. का एक बहुत बड़ा शिलालेख है जिसमें इस वंश की वंशावली दी है। उसमें उल्लेख है कि जब नन्निसान्तर राज्य कर रहा था, तब उसकी मौसी चट्टलदेवी आदि ने पंचकूट बसदि का निर्माण प्रारम्भ कराया। उसकी नींव पण्डित श्रेयांस ने रखी थी। इस अवसर पर अनेक प्रकार के दान दिये गए थे। यह बसदि 'उर्वीतिलक' भी कहलाती है। उपर्युक्त नरेश के अनुज ने 1087 ई. में 'पंचकूट बसदि' के लिए अपने गुरु वादीभसिंह को दान भेट दी थी। 'क्षत्रचूडामणि' और 'गधचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ इन्हीं की रचनाएँ हैं। सन् 1103 में चट्टलदेवी की प्रेरणा से 'पंव बसदि' के सामने एक और बसदि की नींव रखी गई थी। इस धर्मपरायणा महिल की गयी है । वह पल्लवनरेश कडुवेट्टि की रानी थी किन्तु शायद वैधव्य के कारण अपने सान्तर परिवार में वापस आ गई थी। विक्रम सान्तर द्वितीय ने 1147 ई. में अपनी बहिन पंपादेवी के सहयोग से पंचबसदि में उत्तरीय पट्टशाला का निर्माण कराया था। यह शिलालेख हुमचा में तोरण वागिल के उत्तर की ओर के स्तम्भ पर है। उसमें लिखा है कि पोम्बुर्च के सान्तर राजा श्रीवल्लभ अपर नाम विक्रम सान्तर की बड़ी बहिन पंपादेवी बड़ी जिनभक्त थी। उसने एक ही महीने में उर्वीतिलक बसदि के साथ-साथ शासन-देवता स्थापित कराया था। पंपादेवी से अत्तिमब्बे के समान उदार वाचलदेवी का जन्म हुआ। इस जिनभक्ता ने पोन्न के 'शान्तिपूराण' की एक हजार प्रतियाँ अपने खर्च से लिखवाईं और सोने तथा रन्नों की 1500 जिन-प्रतिमाएँ बनवाई थीं। लेख के अनुसार पंपादेवी, श्रीवल्लभ तथा वाचलदेवी ने 'पंच बसदि' की उत्तरीय पट्टशाला बनवाकर वासुपूज्य सिद्धान्तदेव के पाद-प्रक्षालनपूर्वक दान दिया था। पद्मावती मन्दिर के प्रांगण में दाएँ हाथ के स्तम्भ पर 1268 ई. के लेख में कहा गया है कि धनिक जकप के पुत्रों ने बहुशोभायुक्त चट्टला-मण्डप बनवाया और लिखवाया कि 'जैन शासन चिरकाल तक बढ़े। इसका प्रचार करने वालों में सद्धर्म, बल, आयु, आरोग्य और ऐश्वर्य की अभिवृद्धि हो।'
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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