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________________ 122 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) जब पारस मूर्ति रसवापी में उतर गई तब जिनदत्त ने होलुवापी (क्षीरवापी) में तैरती पाषाण की पद्मावती देवी की मूर्ति प्रतिष्ठापित की । कुछ समय बाद उसने अपने पुत्र जयकीर्ति को राज्य देकर दैगम्बरी दीक्षा ले ली । हुमचा की पंचबसदि के आँगन में 1077 ई. का जो शिलालेख है उससे ज्ञात होता है कि जिनदत्त ने सिंहरथ नाम के असुर को मारा था इसलिए जक्कियब्बे (देवी) प्रसन्न हुई और उसने जिनदत्त को सिंह का लांछन (चिह्न) दिया । अन्धकासुर नाम के असुर को मारकर उसने अन्धासुर नाम का नगर बसाया । कनकपुर में आकर उसने कनकासुर का वध किया तथा कुन्द के क़िले में रहनेवाले कर और करदूषण को भगा देने से पद्मावती देवी प्रसन्न हुई और प्रसन्न होकर उसने वहाँ (कनकपुर में) एक लोक्कि वृक्ष पर वास करना शुरू किया तथा लोकियब्बे का नाम धारण कर उसके लिए एक राजधानी के रूप में शहर बसा दिया । जिनदत्त का समय लगभग 800 ई. अनुमानित किया जाता है। उसने सान्तालिगेहजार प्रदेश पर अधिकार करके 'सान्तर राजवंश' की नींव डाली । उसके उत्तराधिकारी 1172 ई. तक जैन धर्म के आराधक बने रहे । स्वयं जिनदत्त ने 'जिनपादाराधक' (जिनेन्द्र के चरणों की पूजा करने वाला), 'पद्मावती - लब्धवरप्रसाद' आदि उपाधियाँ धारण की थीं । पद्मावती देवी उसकी कुलदेवी के रूप में प्रतिष्ठित हुई । इस देवी की प्रतिष्ठा आज भी, लगभग 1300 वर्षों के बाद भी वृद्धि पर ही है । हुमचा का सान्तर राजवंश परिचय शिलालेखों से जैन धर्मावलम्बी जिनदत्तराय द्वारा इस स्थान पर जिस सान्तर राजवंश की स्थापना 800 ई. के लगभग की गई थी, उस वंश ने लगभग 400 वर्षों तक राज्य किया। जैन धर्म की प्रगति के लिए, उसे एक सुदृढ़ आधार देने के लिए, जिनमन्दिरों आदि के निर्माण में वह अपने द्रव्य का सदुपयोग करता रहा । अन्तिम वर्षों में इनकी राजधानी कारकल हो गई थी । अन्तिम नरेश भी वीरशैव हो गया था । यहाँ संक्षेप में, इस वंश द्वारा निर्मित जिनालयों का परिचय दिया जा रहा है यहाँ की प्राचीनतम जैन वसदि का नाम 'पालियक्क' था और उसका निर्माण 878 ई. के लगभग हुआ था । पार्श्वनाथ बसदि की पश्चिमी दीवाल पर उत्कीर्ण शिलालेख में उल्लेख है कि तोलापुरुष विक्रम सान्तर की पत्नी पालियक्क ने यह बसदि अपनी माता की स्मृति में 'पाषाण वसदि' के रूप में बनवाई थी ( सम्भवतः पहले काष्ठ के मन्दिर बनते थे) । एक अन्य लेख में उल्लेख है कि 897 ई. में इसी विक्रम नरेश ने मौनिसिद्धान्त भट्टारक के लिए एक 'पाषाण बसदि' बनवाई थी। इस राजा ने 'दानविनोद' आदि उपाधियाँ धारण की थीं। यह लेख' गुहृद बसदि ' की बाहरी दीवाल पर है । इसी स्थान की 'सूळे' ( सुळे - वेश्या) बसदि के सामने के पाषाण पर 1062 ई. के शिलालेख में उल्लेख है कि जिनपादाराधक त्रैलोक्यमल्ल वीर सान्तरदेव मान्तलिगे के राज्यकाल में 'पट्टणसामि जिनालय' को मोलकेरे गाँव दान में मिला था । दानी पट्टणामि सेट्टि ने प्रतिमा को रत्नों से मढ़ दिया था । उसके पास सोना, चाँदी, मूंगा आदि रत्नों की एवं
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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