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14 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कनाटक)
था, के धर्म का प्रचार अश्मक देश (गोदावरी के तट का प्रदेश), सुश्मक देश (आन्ध्र-पोदनपुर) तथा हेमांगद देश (कर्नाटक) में भी था। हेमांगद देश की स्थिति कर्नाटक में बतायी जाती है। यहाँ के राजा जीवंधर ने भगवान महावीर के समवसरण में पहुँच कर दीक्षा ले ली थी। संक्षेप में, जीवंधर की कथा इस प्रकार है-जीवंधर के पिता सत्यंधर अपनी रानी में बहुत अधिक आसक्त हो गए। इसलिए मन्त्री काष्ठांगार ने उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। सत्यंधर युद्ध में मारे गए किन्तु उन्होंने अपनी गर्भवती रानी को केकियन्त्र में बाहर भेज दिया था। शिशु ने बड़ा होने पर आचार्य आर्यनन्दि से शिक्षा ली और अपने राज्य को पुनः प्राप्त किया। काफी वर्ष राज्य करने के बाद उन्हें वैराग्य हआ और वे भगवान महावीर के समवसरण में जाकर दीक्षित हो गए।
सन् 1982 ई. में प्रकाशित 'Karnataka State Gazeteer' Vol-I में लिखा है
"Jainism in Karnataka is believed to go back to the days of Bhagawan Mahavir. Jivandhara, a prince from Karnataka is described as having been initiated by Mahavir himself.”
अर्थात् विश्वास किया जाता है कि कर्नाटक में जैनधर्म का इतिहास भगवान महावीर के युग तक जाता है। कर्नाटक के एक राजा जीवंधर को स्वयं महावीर ने दीक्षा दी थी ऐसा वर्णन आता है।
संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में तो लगभग एक हजार वर्षों तक जीवंधरचरित पर आधारित रचनाएँ लिखी जाती रहीं। तमिल और कन्नड़ में भी उनके जीवन से सम्बन्धित रचनाएँ हैं । जीवकचिन्तामणि (तमिल), कन्नड़ में-जीवंधरचरिते (भास्कर, 1424 ई.), जीवंधर-सांगत्य (बोम्मरस, 1485 ई.) जीवंधरषट्पदी (कोटीश्वर, 1500 ई.) तथा जीवंधरचरिते (बोम्मरस)।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष सुविचारित एवं सुपरीक्षित नहीं लगता कि कर्नाटक में जैनधर्म का प्रचार ही उस समय प्रारम्भ हुआ जब चन्द्रगुप्त मौर्य और श्रुतकेवली भद्रबाहु श्रवणबेलगोल आए। कम-से-कम भगवान महावीर के समय में भी जैनधर्म कर्नाटक में विद्यमान था यह तथ्य हेमांगदनरेश जीवंधर के चरित्र से स्वत: सिद्ध है।
बौद्धग्रन्थ 'महावंश' का साक्ष्य
श्रीलंका के राजा पाण्डुकाभय (ईसापूर्व 377 से 307) और उसकी राजधानी अनुराधापुर के सम्बन्ध में चौथी शताब्दी के बौद्ध ग्रन्थ 'महावंश' में कहा गया है कि श्रीलंका के इस राजा ने निगंथ जोतिय (निगंथ =निर्ग्रन्थ-जैनों के लिए प्रयुक्त नाम जो कि दिगम्बर का सूचक है) के निवास के लिए एक भवन बनवाया था। वहाँ और भी निर्ग्रन्थ साधु निवास करते थे। पाण्डुकाभय ने एक निर्ग्रन्थ कुंभण्ड के लिए एक मन्दिर भी बनवा दिया था। इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व श्रीलंका में जैनधर्म का प्रचार हो चका था और वहाँ दिगम्बर जैन साध विद्यमान थे। इससे यह भी निष्कर्ष नि है कि वहाँ जैनधर्म दक्षिण में पर्याप्त प्रचार के बाद ही या तो कर्नाटक-तमिलनाडु होते हुए या कर्नाटक-केरल होते हुए एक प्रमुख धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हआ होगा।
महावंश में उल्लिखित जैनधर्म सम्बन्धी तथ्य को प्रसिद्ध इतिहासकार श्री नीलकण्ठ शास्त्री ने भी स्वीकार करते हए 'दी एज ऑफ नन्दाज़ एण्ड मौर्याज़' में लिखा है कि राजा पाण्डकाभय ने निर्ग्रन्थों को भी दान दिया था।