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________________ कर्नाटक में जैन धर्म / 15 नन्द-वंश महावीर स्वामी के बाद पाटलिपुत्र में नन्दवंश प्रतिष्ठित हुआ। यह वंश जैन धर्मानुयायी था। यह तथ्य सम्राट् खारवेल के लगभग 2200 वर्ष पुराने उस शिलालेख से स्पष्ट है जिसमें उसने कहा है कि कलिंगजिन की जो मूर्ति नन्द राजा उठा ले गया था, उसे वह वापस लाया है। इस वंश का राज्य पूरे भारत पर था। कर्नाटक के बीदर को महाराष्ट्र से जोड़ने वाली सड़क नांदेड जाती है। विद्वानों के अनुसार 'नव (नौ) नन्द देहरा' उस स्थान का प्राचीन नाम है जो घिसकर नान्देड हो गया है। 'देहरा' जैन मन्दिर के लिए आज भी राजस्थान-गुजरात में प्रयुक्त होता है। नांदेड वह स्थान था जहाँ नन्दों ने जैन मन्दिर बनवाया था और (शायद) नगर बसाया था। इस बात के प्रमाण हैं कि कुंतल देश नन्द राजाओं की सीमा में था। श्री एम. एस. रामास्वामी अय्यंगार 'कुंतल' देश को roughly Karnataka (मोटे तौर पर कर्नाटक) मानते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ तमिल ग्रन्थों में अन्तिम नन्द राजा धननन्द के अपार खजाने, उसके गंगा में गड़े होने या बह जाने का, उसके लालच का उल्लेख करते हैं। आशय यह कि तत्कालीन तमिल देश भी नन्दों के अधीन था और इन शासकों के सम्बन्ध में चर्चा यहाँ के लोगों-लेखकों में भी अक्सर होती रहती थी। प्राचीन भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ श्री हेमचन्द्रराय चौधरी ने 'इण्डिया इन द एज ऑफ नन्दाज़' नामक अध्याय में लिखा है "Jain writers refer to the subjugation by Nanda's minister of the whole country down to the seas." अर्थात् "जैन लेखक इस बात का उल्लेख करते हैं कि नन्द के मन्त्री ने समुद्र पर्यन्त सारे देश को अधीन कर लिया था।" यदि इन जैन लेखकों के कथन में कुछ भी सच्चाई नहीं होती, तो श्री राय चौधरी उसका उल्लेख नहीं करते। मौर्य-वंश ऊपर जो तथ्य दिये गये हैं उनसे यह सिद्ध होता है कि कर्नाटक में जैन धर्म का प्रसार चन्द्रगुप्त मौर्य और आचार्य भद्रबाहु के श्रवणबेलगोल आने से पूर्व ही हो चुका था। यदि ऐसा नहीं होता तो चन्द्रगुप्त मौर्य बारह हजार मुनियों (उनके साथ एक लाख जैन श्रावक भी रहे होंगे) को अपने साथ लेकर कर्नाटक नहीं आते । यह तथ्य इस बात का भी खण्डन करता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण पर भी विजय की थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिन्दुसार और पोते सम्राट अशोक ने भी श्रवणबेलगोल की यात्रा की थी। कर्नाटक में कुछ स्थानों (रायचूर ज़िला) पर अशोक के लेख भी पाये गये हैं। अशोक को बौद्ध बताया जाता है किन्तु यह पूरी तरह सत्य नहीं है। इस तथ्य के समर्थन में श्री एम. एस. रामास्वामी अय्यंगार ने लिखा है “Prof. Kern, the great authority on Buddhist scriptures, has to admit that nothing of a Buddhist can be discovered in the state policy of Ashoka. His ordinances concerning the sparing of life agree much more closely with the ideas of the heretical Jains than those of the Buddhist." अर्थात् बौद्ध धर्मग्रन्थों के महान् अधिकारी विद्वान् प्रो. कर्न को यह स्वीकार करना पड़ा है कि अशोक की राज्य-नीति में बौद्ध जैसी कोई बात नहीं पाई जाती। जीवों की रक्षा सम्बन्धी उसके आदेश बौद्धों की अपेक्षा विधर्मी जैनों से बहुत अधिक मेल खाते हैं ।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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