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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ धृति योग तथा तैतिल करणमें हुई। इस मन्दिरके मुख्य शिल्पीका नाम सूत्रधार हरसिंगका पौत्र, पाल्हणका पुत्र आहड़ था। यह प्रदेश अपनी समृद्धिके कारण आक्रान्ताओंका आकर्षण-केन्द्र रहा है। इसीलिए सुरक्षाकी दृष्टिसे इस नगरके चारों ओर बहुत ऊँचा परकोटा बनाया गया। इसमें दो ही द्वार हैं । इस परकोटेके कारण यह नगर सदियोंसे सुरक्षित रहा है। इस परकोटेमें प्राचीन मन्दिरोंकी सामग्री काममें लायी गयी है। यहां यह किंवदन्ती प्रचलित है कि पहले बिजौलियामें १०८ विशाल मन्दिर थे। धर्मान्ध मूर्तिभंजकोंने इन मन्दिरोंको तोड़ दिया। उन टूटे हुए मन्दिरोंके पाषाण आदिसे ही यह परकोटा बनाया गया है। अब भी प्राचीन मन्दिरोंके भग्नावशेष यहाँ चारों ओर बिखरे पड़े हैं। नगरके बाहर दक्षिण-पूर्वमें लगभग २ फल्गपर मन्दाकिनी कुण्डके बायें तट पर, नीची भूमिपर तीन प्राचीन शिव मन्दिर खड़े हैं, जिनके नाम हैं-हजारेश्वर, महाकालेश्वर और उण्डे जलेश्वर । हजारेश्वरमें शिवलिंगके ऊपर सैकड़ों लिंग खुदे हए हैं। इसलिए इसे सहस्रलिंगका मन्दिर भी कहते हैं। मन्दिरोंको कला और शिल्प-वैभव दर्शनीय है। ये मन्दिर और शिखर खजुराहोके मन्दिरोंकी कलासे प्रभावित और उसके अनुवर्ती प्रतीत होते हैं। दोनों स्थानोंकी कलामें सादृश्यके साथ अन्तर भी स्पष्ट है। खजुराहोके मन्दिरोंके समान ये मन्दिर भी आमूलचूल खुदे हुए हैं किन्तु खजुराहोके मन्दिरोंमें देव, देवी, मिथुन, मानव आदिकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं, किन्तु यहाँके इन मन्दिरोंमें खजुराहोके मन्दिरोंकी तरह मानव-मूर्तियाँ न होकर केवल बेल-बूटे ही बने हुए हैं। इन मन्दिरोंके निर्माण-कालपर प्रकाश डालनेवाले प्रमाण अथवा कोई शिलालेख उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु इन मन्दिरोंके निकट स्थित मन्दाकिनी कुण्डकी दीवालपर १६ पंक्तियोंका एक शिलालेख उत्कीर्ण है जो ८ फुट लम्बा और ३ फुट चौड़ा है । इसमें विभिन्न प्रसंगोंमें कुछ तिथियोंका उल्लेख आया है। जैसे संवत्-१३३२, १३५२, १३७६, १३८६ ( इस संवत्का उल्लेख तीन बार आया है।) यह सम्भावना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है कि कुण्डका निर्माण मन्दिरोंके निर्माणके पश्चात् किया गया हो। दूसरी सम्भावना यह भी है कि ये मन्दिर किन्हीं प्राचीन मन्दिरोंके कलात्मक अवशेषोंसे निर्मित किये गये हों। इस सम्भावनाका कारण यह है कि इन मन्दिरोंके ढाँचेमें कुछ चित्रित पाषाण और स्तम्भके भाग लगे हुए हैं, जो ढाँचेकी बनावटसे मेल नहीं खाते। प्रसिद्ध विद्वान् श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इन मन्दिरोंको सं. १२२६ से पूर्वका मानते हैं क्योंकि जैन शिलालेखमें महाकाल आदि कई मन्दिरोंका उल्लेख आया है। नगरके दक्षिण-पूर्वमें दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ क्षेत्र है। यह क्षेत्र सुदृढ़ परकोटेसे घिरा हुआ है। इसके चारों कोनोंपर दुहरी गुम्बददार चार देवरियाँ या छोटे मन्दिर बने हुए हैं तथा मध्यमें एक मन्दिर बना हुआ है। यही पाश्वनाथ मन्दिर कहलाता है। परकोटेका मुख पश्चिमकी ओर है तथा मन्दिर पूर्वाभिमुख है। ____ यह मन्दिर पंचायतन है । मन्दिरके चारों कोनोंपर चार देवरियां बनी हुई हैं तथा मध्यमें मन्दिर बना हुआ है । गर्भगृह या निजगृह ७ फुट २ इंच लम्बा, ७ फुट १ इंच चौड़ा और ६ फुट ७ इंच ऊँचा है। वेदोपर मध्यमें ६ फुट ४ इंच ऊंची पाषाणको एक शिखराकृति है। शिखरमें एक द्वाराकृति बनी हुई है। इसके रिक्त स्थानपर मूलनायक प्रतिमा विराजमान रही होगो, किन्त इस समय यह स्थान रिक्त है। इसकी मूलनायक प्रतिमा भगवान् पाश्र्वनाथकी रही होगी, ऐसा विश्वास किया जाता है। यह प्रतिमा आजकल यहाँ नहीं है। शिलालेखमें धरणेन्द्र द्वारा स्वप्नमें जिस प्रतिमाका संकेत किया गया है तथा लोलाकं श्रेष्ठीने जिसे निकालकर प्रतिष्ठित किया था,
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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