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________________ ६९ राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ नरेशोंके हाथोंमें आ गया। ये उज्जैन या धारके परमारवंशी नरेशोंके वंशधर थे। जब दिल्लीके सुलतान मुहम्मद तुगलकने मालवापर अधिकार कर लिया, उस समय ये परमार इधर-उधर चले गये। उनमें से कुछ अजमेर और कुछ दक्षिण भारतकी ओर चले गये। बिजोलियाके शासक 'भी परमार थे और ये मलतः आगरा-बयानाके मध्य में स्थित जगनेरके रहनेवाले थे। जगनेरके राव अशोक परमार सम्भवतः मुसलमानोंके आक्रमणके फलस्वरूप सन् १६१० के आसपास उदयपुरमें जब राणा अमरसिंह सीसोदिया शासन कर रहे थे, यहाँ आये । राणा अमरसिंहका विवाह राव अशोक की पुत्रीसे हो गया। राणाने प्रसन्न होकर रावको बिजौलियाका प्रदेश दे दिया । तबसे यहाँपर सन् १९४८ में रियासतोंके एकीकरण तक ये ही परमार राव नरेश शासन करते रहे। क्षेत्रका इतिहास यहाँ उपलब्ध शिलालेखोंमें क्षेत्रका जो इतिहास दिया गया है, वह इस प्रकार है एक बार श्रेष्ठी लोलार्क कार्यवश विन्ध्यवल्ली (बिजौलिया) आया। एक दिन वह रातमें शय्यापर सो रहा था। उसने सामने एक श्रेष्ठ पुरुषको खड़ा हुआ देखा । लोलार्कने उससे पूछातुम कौन हो, यहाँ क्यों आये हो, कहाँसे आये हो ? उस पुरुषने उत्तर दिया-"मैं नागेन्द्र हूँ। मैं पाताल लोकसे तुम्हें उपदेश देने आया हूँ कि यहाँ भगवान् पाश्वनाथ स्वयं आवेंगे।" प्रातःकाल उठनेपर सेठने उस अद्भत स्वप्नके बारेमें सोचा और वातादि विकारोंके कारण इस प्रकारके निरर्थक स्वप्न आते हैं, यह विचार करके उसने स्वप्नकी उपेक्षा कर दी। सेठके तीन पत्नियां थीं-ललिता, कमलश्री और लक्ष्मी। दूसरे दिन ललिताको स्वप्नमें उस दिव्य पुरुषने कहा-"भद्रे ! सुनो ! मैं धरणेन्द्र हूँ। प्रभु पार्श्वनाथ यहाँ आकर दर्शन देंगे।" ललिता बोली-"नागेन्द्र ! मेरे पति पार्श्वनाथ स्वामीको निकालेंगे, उनका मन्दिर बनवायेंगे और समारोहके साथ उनकी पूजा रचायेंगे। किन्तु आप मेरे पतिसे यह बात कह दो।" धरणेन्द्र पुनः लोलार्कके पास गये और उससे कहने लगे-"भद्र ! प्रभु पाश्वनाथ यहां रेवती तीरपर आ गये हैं। इन्हें तुम निकालो, धर्मका अर्जन करो, जिनालय बनवाओ, जिससे लक्ष्मी, वंश, यश, पुत्र-पौत्र, सन्तान-सुखमें वृद्धि होगी। यहाँके भीम नामक वनमें भगवानका वास है। तीनों लोकोंके प्राणियोंको ज्ञान देनेवाले पाश्वनाथ जिनेश्वर अब यहां वास करेंगे।" प्रातःकाल उठनेपर लोलार्कने स्वप्नपर पुनः विचार किया। निर्दिष्ट स्थानपर स्वयं ही खोदा, त्यों ही कुण्डसे अकृत्रिम स्वयंभूत भामण्डल युक्त अत्यन्त शोभनीय पार्श्वप्रभुके दर्शन हुए। ___ लोलाकंके पिता सीयकको जब यह समाचार मिला तो वह भी प्रमुदित मनसे यहां आया। उसके आनेपर कुण्डमें-से पद्मावती, क्षेत्रपाल, अम्बिका, ज्वालामालिनी और धरणेन्द्रकी मूर्तियाँ निकली। तब लोलार्कने अपने गुरु श्री जिनचन्द्र सूरिके परामर्शसे यहां पाश्वनाथ स्वामीका विशाल जिनायतन बनवाया और इस तीर्थकी स्थापना की। शिलालेखके अनुसार लोलार्क श्रेष्ठीने यह मन्दिर सप्त आयतनयुक्त बनवाया। इस मन्दिरकी चौहद्दी इस प्रकार थी-पूर्वमें रेवती नदी और देवपुर, दक्षिणमें मठस्थान, उत्तरमें कुण्ड और दक्षिणोत्तरमें नाना वृक्षोंसे भूषित वाटिका। इस मन्दिरको प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १२२६ फाल्गुन कृष्णा ३ गुरुवार, हस्त नक्षत्र,
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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