________________
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
नयचन्द्र सूरिके 'हम्मीर महाकाव्य' में चर्मण्वती नदीके किनारे आश्रमपत्तनके जम्बूपथ सार्थवाही शिवका वर्णन मिलता है । उसका सम्बन्धित अंश इस प्रकार है।
दत्वेति शिक्षा शुभबद्धसख्यां, गेहे च देहे च निरीहचित्तः । जैत्रप्रभुः स्वात्महितं चिकीर्षन्, श्री आश्रमं पत्तनमन्वचालीत् ।।१०६।। शिवापि जम्बूपथसार्थवाही, विराजते यत्र शिवः स्वयंभूः । यो ध्यातमात्रोऽप्युरुभक्तिभाजां, दत्ते न किं भुक्तिमिवाशु मुक्तिम् ।।१०७।। मज्जच्छचीदृग्युगलीकुवेल-विष्वग्गलत्कज्जलमेचकाम्बु ।
चर्मण्वती यत्र सरिद् वहन्ती, पुण्यश्रियो वेणुरिवावभाति ॥१०८।। इसमें बताया है कि रणथम्भौरके राजा हम्मीरके पिता जैत्रसिंह अपने पुत्रको राज्य सौंपकर आश्रमपत्तनके लिए चल दिये। उनकी इच्छा आत्महित करनेकी थी। वे देह और गेहसे विरक्त हो गये । आश्रमपत्तनमें जम्बूपथ सार्थवाही शिवजी विराजते हैं । भक्ति द्वारा वे भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करते हैं । वहाँ चर्मण्वती नदी बहती है।
___ इसी प्रकार अकबरकालीन गौड़कवि चन्द्रशेखर विरचित 'सुजनचरित' में चर्मण्वती नदीके किनारेपर अवस्थित जम्बूमार्गके मृत्युंजय महादेवका वर्णन है। किन्तु इसमें आश्रमपत्तनका उल्लेख न करके उसके स्थानपर पट्टनका उल्लेख मिलता है और उसे पुटभेदनको संज्ञा प्रदान की है। पुटभेदनका अर्थ है जल और स्थल मार्गोंसे व्यापार करनेवाला नदी-तटपर अवस्थित नगर । हम्मीर महाकाव्यमें आश्रम-पट्टन नाम दिया गया है। पट्टनका अर्थ है बन्दरगाह, चाहे वह समुद्र तटपर हो या नदी-तटपर । आश्रम पट्टन भी था और पुटभेदन भी।
सुजनचरितसे यह भी ज्ञात होता है कि रणथम्भौर और आश्रमपत्तनके बीचमें पल्ली, तिलद्रोणी नदी, पारियात्र गिरि स्थित विल्वेश्वर महादेव और षट्पुर आदि स्थान थे। ये स्थान अब भी मौजूद हैं । हां, किसी-किसी नाममें साधारण-सा परिवर्तन हो गया है। जैसे, तिलद्रोणी तिलजनी कहलाता है। पल्ली विल्वेश्वर महादेवसे अढाई मील दर है। इसे पालाई भी कहते हैं । षटपुर आजकल खड़वड़ कहा जाता है। विल्वेश्वर महादेवका मन्दिर भी इस पर्वतपर है । शिवरात्रिको यहां मेला भी भरता है।
इन साहित्यिक साक्ष्योंके आधारपर विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि केशोरायपाटन ही वस्तुतः आश्रम (आशारम्य) पत्तन है । प्राकृत निर्वाणकाण्ड, अपभ्रंश निर्वाण-काण्ड और शासन-चतुस्त्रिशिकामें आश्रमपत्तन या आशारम्यपत्तनके जिन भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी मूर्तिके अतिशयोंका वर्णन किया गया है, वह मूर्ति भी अब तक विद्यमान है। इसी आश्रमपत्तन नगरके मनिसव्रतनाथ तीर्थंकरके चैत्यालय में बैठकर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवने सोम नामक राजश्रेष्ठीके निमित्तसे लघु-द्रव्यसंग्रह और बृहद्-द्रव्यसंग्रहकी रचना की थी। बृहद्-द्रव्यसंग्रहके वृत्तिकार ब्रह्मदेवने अपनी टीकाके उत्थानिका वाक्यमें इस बातका स्पष्ट उल्लेख किया है। वे उत्थानिका-वाक्य इस प्रकार हैं_ 'अथ मालवदेशे धारानामनगाधिपति राजा भोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवतिसंबन्धिनः श्रीपालमहामण्डलेश्वरस्य संबन्धिन्याश्रमनाम-नगरे श्रीमुनिसुव्रततीर्थंकरचैत्यालये...भव्यवरपुण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्तं श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तदेव पूर्वं षड्विंशतिगाथाभिलघुद्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद् विशेषतत्त्वपरिज्ञानार्थं विरचितस्य द्रव्यसंग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन व्याख्यावृत्तिः प्रारभ्यते।'