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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ
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यतिवर मदनकीर्तिने शासन-चतुस्त्रिशिका में मुनिसुव्रतनाथकी इस मूर्ति की स्थापनाका एक सांकेतिक इतिहास भी दिया है, जिससे इस मूर्तिके अकल्प्य चमत्कारपर प्रकाश पड़ता है । यतिवर बताया है कि एक बार नदीसे एक शिला आश्रम ( नगर ) में लायी गयी। इस शिलाको लेकर ब्राह्मणों और जैनोंमें विवाद हो गया । ब्राह्मण उस शिलापर अपने देवोंकी स्थापना करना चाहते थे और जैन भगवान् मुनिसुव्रतनाथको मूर्ति स्थापित करना चाहते थे। तब देवोंने ब्राह्मणोंको ऐसा करनेसे रोका, उन्होंने शिलापर भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी मूर्ति विराजमान की एवं आकाशमें जय-जयकार किया । पश्चात् ब्राह्मणोंने उस मूर्तिको वहाँसे हटाना चाहा, किन्तु वह हट नहीं सकी । यतिवरकी वह कारिका इस प्रकार है
"पूर्वं याश्रममाजगाम सरितां नाथात्तु दिव्या शिला, तस्यां देवगणान् द्विजस्य दधतस्तस्थो जिनेशः स्थिरम् । कोपात् विप्रजनावरोधनकरैः देवैः प्रपूज्याम्बरे,
यो मुनिसुव्रतः स जयतात् दिग्वाससां शासनम् ॥”
उपर्युक्त सभी उल्लेखों के प्रकाशमें एक बात तो स्पष्ट है कि मुनिसुव्रतनाथको एक अतिशयसम्पन्न प्रतिमा निर्वाणकाण्ड (प्राकृत) के रचयिताके कालमें विद्यमान थी । विद्वानोंकी धारणा है कि प्राकृत भाषाकी भक्तियोंकी रचना आचार्य कुन्दकुन्दने की है । यदि यह धारणा सत्य है, तब तो इस क्षेत्रकी मान्यता ईसाकी प्रथम शताब्दी तक जा पहुँचती है। कुछ विद्वानोंकी मान्यता है कि प्राकृत निर्वाणकाण्ड में कुछ गाथाएँ बाद में मिलायी गयी हैं, विशेषतः अतिशय क्षेत्रों और कल्याणक क्षेत्रों सम्बन्धी । उन विद्वानोंके मतानुसार यह मिलावट ईसाकी ९-१०वीं शताब्दी में की गयी। इन विद्वानोंको इस मान्यताको सही माना जाये तो इस क्षेत्रकी मान्यता ९-१०वीं शताब्दी से पूर्व में थी । इसके पश्चात् यतिवर मदनकीर्तिने इस क्षेत्रका उल्लेख किया है । यतिवर तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् हैं । यतिवरके पश्चात् उदयकीर्तिने क्षेत्रका उल्लेख किया है। इन तीनों सन्दर्भोंमें दो सन्दर्भों - प्राकृत निर्वाण-भक्ति और अपभ्रंश निर्वाण-भक्ति में नगरका नाम आशारम्य पट्टन दिया है और शासनचतुस्त्रिशिका में केवल आश्रम नाम दिया है । किन्तु तीनों ही सन्दर्भों में भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी वन्दना या प्रशंसा की गयी है । अतः यह सुनिश्चित है कि आशारम्य या आश्रम नामक स्थानमें मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्रका अतिशय जगत्प्रसिद्ध था ।
आश्रमपट्टन कहाँ है ?
शोध-खोजके परिणामस्वरूप विद्वान् इस निष्कर्षंपर पहुंचे हैं कि वर्तमान केशोरायपाटन ही प्राचीन आश्रमपट्टन है । केशोरायपाटन नामक नगर राजस्थान के बूंदी जिलेमें चम्बलके तटपर अवस्थित है । चम्बल नदी ही बूँदी और कोटा जिलोंकी विभाजक रेखा बनाती है । नगरका नाम केशवराय - विष्णु के विग्रहके कारण केशोरायपाटन पड़ा है। केशोरायके मन्दिरका निर्माण सन् १६०१ में हाड़ानरेश महाराव शत्रुसालने कराया था । तबसे नगरका नाम बदलकर केशवरायपाटन हो गया । इससे पूर्वं इसका नाम पट्टन था । उससे भी पूर्व राणा हम्मीरके समय तक इस नगरका नाम आश्रमपत्तन था । प्राचीन साहित्य में चम्बलके तटपर आश्रमपत्तन नामके एक हिन्दू तीर्थंके सम्बन्धमें उल्लेख मिलते हैं । यहाँ मृत्युंजय महादेवका विख्यात देवालय था । यहाँ माघ मासमें शिवरात्रिके दिन मेला लगता था । हम्मीर के समयमें इसे ही जम्बुपथ सार्थवाही कहते थे, अकबरके कालमें यह स्थान जम्बुमार्ग कहलाने लगा और आजकल जम्बु- पथ कहलाता है । अब भी यहाँ दो शिवलिंग विद्यमान हैं। हिन्दू जनता इसे अपना तीर्थक्षेत्र मानती है ।