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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ १००९ का आलेख है। यह प्रतिमा खड्गासन है। हमें बताया गया कि यह प्रतिमा भी कहीं अन्यत्र जमीनसे निकालकर यहाँ विराजमान की गयी थी। अन्य विवरण
सन् १३८८ में फिरोज तुगलकके पश्चात् मुसलमानोंका साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा था। जिस समय फिरोज खाँ नागौरका शासक हुआ उस समय नरैना भी नागौरके ही अन्तर्गत था। सन् १४२० में मोकल मेवाड़का महाराणा हआ। उसने फिरोजखाँ को हराकर समस्त सपादलक्ष ( साँभर राज्य ) को जीत लिया। अतः नरैना भी उस समय मोकलके अधिकारमें आ गया था। कुछ ही दिन बाद फिरोज खाँके भाई मुजरे खाने मोकलको हराकर नरैनाको फिर अपने कब्जे में ले लिया था। सन् १४३७ ईस्वीमें उसने किले तथा तालाबकी मरम्मत करायी और अपने नामपर तालाबका नाम रखा। वर्तमान में इस तालाबको गौरीशंकर तालाब कहते हैं।
मुजरे खांने यहाँके मन्दिरोंको तोड़कर तालाबके किनारे एक जामामसजिद और उसके समीप ही एक त्रिपोलियाका निर्माण कराया। इन दोनों इमारतोंमें जो मैटेरियल लगाया गया वह यहाँके कलापूर्ण जैन और हिन्दुओंके ध्वस्त मन्दिरोंका है।
सन् १४३९ के रणकपुरके शिलालेखसे विदित होता है कि बादमें नरैनाको राणा कुम्भाने जीत लिया था। अकबरके राज्यकाल (सन् १५५६-१६०६ ) में यह नगर अजमेर राज्यके अधीन हो गया था। अकबर स्वयं नरैना आया था।
मुगलोंके समयमें नरैनापर कच्छाओंका राज्य रहा। आमेरके राजा पृथ्वीराजके पुत्र जगमलने तेजसिंह और हमीरदेवको हराकर जोबनेर और नरैना जीत लिया था। फलस्वरूप अकबरने उसे १०००) रुपयेका इनाम दिया था। जगमल राजा मानसिंहके साथ राणा प्रतापके
रोधमें लडने गया था। जगमलके दो पत्र थे-खंगार और रामचन्द्र । खंगारसे खंगारोत वंश प्रचलित हुआ जिसने जोबनेर और नरैनापर राज्य किया। रामचन्द्रने जम्मू राज्यकी स्थापना की। इसीलिए वह कश्मीरके राजाओंका पुरखा कहलाता है। पश्चात् सन् १७२६ में नरैना जयपुर राज्यकी अमलदारीमें आ गया था।
सन् १६९१ में ईडरके भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्तिजी और चाकसूके भट्टारक जगत्कीर्तिजी एक समय साथ-साथ यहाँ आये थे, उस उपलक्ष्यमें नरैना जैन समाजने बहुत बड़ा उत्सव मनाया था। नरैनामें ही नयनरुचिने भक्तामरस्तोत्रवृत्तिकी प्रति तैयार करायी थी। मौजमाबाद
नरैनाकी तरह मौजमाबाद भी राजस्थानके प्राचीन नगरोंमें से एक है। नरैनाके पास ही दुघूसे यह दक्षिण-पूर्वमें लगभग ११ किलोमीटर है। विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दीमें इस नगरका वैभव अपनी चरम सीमापर था। मुगल सम्राट अकबर और जयपुरके शासक दोनों ही इस नगरसे आकृष्ट थे।
साहित्य एवं कलाकी दृष्टिसे भी इस नगरका अपना महत्त्व रहा है। जयपुर और अजमेरके मध्य साहित्य-निर्माण और उसके प्रचारके लिए यह राजस्थानमें उस समय प्रमुख केन्द्र रहा आया । अनेक जैन कवियोंने यहाँ जन्म लिया। विक्रम संवत् १६६० में यहां हिन्दीके जैनकवि छीतरमल ठोलिया हुए जिन्होंने होली कथाको चौपाईमें छन्दोबद्ध किया।
यह नगर उस समय आमेरके महाराजा मानसिंह प्रथमके शासनमें था। छीतरमल