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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सन् ११७२ में पृथ्वीराज तृतीयने यहां अपना एक सैनिक कैम्प डाला था जो राजा कुम्भाके समय ( सन् १४३३-६८) तक बना रहा । सन् ११९२ में मोहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज तृतीयको हरानेके पश्चात् नरैनापर दिल्लीके सुलतानोंका कब्जा हो गया। उन्होंने अपनी धर्मान्धतामें अनेक हिन्दू और जैन मन्दिरोंका विनाश किया। नरैनामें वर्धमान स्वामीका जो कलात्मक मन्दिर सन् १९७० में बना था, लगता है, सन् ११९२ या इसके आस-पासमें ही मुसलमान सुलतानों द्वारा यह धराशायी कर दिया गया था। खुदाईके समय जमीनमें प्राप्त मूर्तियोंकी स्थितिको देखकर कहा जा सकता है कि नरैनाकी जैन समाजने मुसलिम आक्रमणके पहले ही मन्दिरकी मूर्तियोंको उसके समीप ही १०-१२ फुट गड्ढा खोदकर उसमें बड़ी व्यवस्थित और सावधानीके साथ गाड़ दिया था। मूलनायक वर्धमान स्वामीकी प्रतिमा इतनी अधिक भारी थी कि उसे मन्दिरसे नहीं हटाया जा सका। उसके अतिरिक्त और भी दो-चार प्रतिमाएं उस समय मन्दिरमें ही रह गयीं। मन्दिरके साथ ही इन ऊपर रह गयो मूर्तियोंको भी आक्रमणकारियोंने तोड़-फोड़ डाला। वि. संवत् १९५४ की माघ सुदी ५ को नरैनाके प्रसिद्ध सेठ शाह अजीतमलजी लुहाडियाको स्वप्नमें कुछ मूर्तियां जमीनमें गड़ी हुई होनेका आभास हुआ। तदनुसार उस स्थानपर खुदाई करायी गयी। फलतः बहुत ही मनोज्ञ ११ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई। इनमें एक प्रतिमापर चन्द्रमाका चिह्न है, शेष बिना चिह्न की हैं। जिस स्थानपर ये मूर्तियां निकली हैं उसके बिलकुल समीप ही भैरुजीका एक मठ भी मौजूद है। अनुमान है कि इस मठके नीचे ही उक्त जैन मन्दिर ध्वस्त होकर दब गया होगा। मठ बिना नींवके ही पक्का बना हुआ है। मठके आसपास खुदाई करानेपर मन्दिरके भग्नावशेषखण्डित मूर्तियाँ, तोरण, खम्भे आदि प्राप्त हुए थे। खुदाईसे प्राप्त मूर्तियाँ खुदाईसे प्राप्त मूर्तियों में से एक मूर्ति चन्द्रप्रभ स्वामीकी है। यह ३ फुट ऊँची, पद्मासन मुद्रामें है । प्राप्त मूर्तियोंमें यह सबसे मनोज्ञ है। अन्य दो मूर्तियाँ सफेद पाषाणकी हैं और चन्द्रप्रभकी मूर्तिको अपेक्षा कुछ छोटी हैं। एक छोटी मूर्ति सरस्वतीको भी प्राप्त हुई है। इसका वर्ण सफेद है। यह बहुत ही आकर्षक है। इसपर संवत् ११०२ का लेख है। एक चरण-पादुका युगल भी इस खुदाईमें प्राप्त हुआ है जिसपर संवत् १०८३ का लेख है। इनके अतिरिक्त खुदाईमें प्राप्त संगमरमरकी ६ तीर्थंकर प्रतिमाएं और हैं। इनमें से दो मूर्तियाँ लगभग ३ फुट अवगाहनाकी हैं। शेष अपेक्षाकृत छोटी हैं। सिंहवाहिनी देवियोंकी भी करीब २ फुट ऊँची मनोहारिणी मूर्तियां यहाँसे उपलब्ध हुई हैं। ___उक्त मूर्तियोंके निकलनेके लगभग २५-३० वर्ष पश्चात् यहाँ और भी मूर्तियाँ निकलनेकी आशामें उसी स्थानके इर्द-गिर्द फिरसे बहुत सारी जमीनको खुदाई की गयी। फलतः एक मूर्ति प्राप्त हुई। यह लगभग एक फुट ऊंची श्वेत-वर्ण पद्मासन मुद्रा में है और मनोज्ञ है। दिनांक ३-९-१९७४ को यहाँके एक टीलेसे भी खुदाईमें कुछ मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इनमें श्वेत संगमरमरकी दो प्रतिमाएं तथा एक चरण-पादुका है। प्रतिमाओंकी अवगाहना करीब पौने तीन फुटकी है, ये पद्मासन मुद्रामें हैं। इनका प्रतिष्ठाकाल १४वीं शताब्दी है। ये सभी मूर्तियाँ यहाँके दिगम्बर जैन बड़े मन्दिरमें विराजमान कर दी गयी हैं। पाश्वनाथकी एक श्वेत संगमरमरकी मूर्ति, जिसकी अवगाहना लगभग ५ फुट है, भी इस बड़े मन्दिर में विराजमान है। इसपर संवत्
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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