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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सामग्री होनेसे यह पुरातत्त्वविदों, इतिहासकारों और अनुसन्धाताओंका एक आकर्षण केन्द्र बन गया है।
पुरातत्त्व
बघेरा ग्रामका ऐतिहासिक महत्त्व क्या है, यह तो ज्ञात नहीं हो सका। किन्तु पुरातत्त्वकी दृष्टिसे इसका विशेष महत्त्व है । यहाँ समय-समयपर प्राचीन मूर्तियां भूगर्भसे निकाली जाती रहती हैं। यहाँ अब तक जितनी भी मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं, वे प्रायः ११वीं से १३वीं शताब्दी तककी हैं और अधिकांश मूर्तियाँ जैन तीर्थंकरोंकी हैं। ये मूर्तियाँ ८-९ इंचसे लेकर ७-८ फुट तक ऊंची हैं। प्रायः सभी जैन मूर्तियाँ पद्मासन मुद्रामें मिली हैं, किन्तु कुछ मूर्तियाँ कायोत्सर्गासनमें भी हैं। मूर्तियाँ प्रायः पाषाणकी हैं, किन्तु कुछ धातु प्रतिमाएँ भी मिली हैं जो पाषाण मूर्तियोंके समान ही प्राचीन हैं।
यहाँ दो दिगम्बर जैन मन्दिर हैं-(१) श्री शान्तिनाथ मन्दिर और (२) श्री आदिनाथ मन्दिर । भूगर्भसे निकाली गयी जैन मूर्तियाँ इन्हीं मन्दिरोंमें विराजमान कर दी गयी हैं। इन दोनों मन्दिरोंमें-से शान्तिनाथ मन्दिर अतिशय क्षेत्र कहलाता है और यहाँ जैन-अजैन लोग मनौती मनाने आते रहते हैं।
शान्तिनाथ मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा सोलहवें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथकी है जो लगभग ८-९ फुट अवगाहनाकी है। यह मूर्ति भूगर्भसे निकली थी, ऐसा कहा जाता है। इस प्रतिमाके लेखसे प्रतीत होता है कि यह लाट-बागड़ साधु संघमें (साधु दुर्लभसेन कृत) पदसिद्धिके विचारकर्ता श्री पद्मसेन गुरुके द्वारा किसी श्रावकने संवत् १२५४ में प्रतिष्ठित करायी थी।
इस मन्दिरका निर्माण किसने कराया था यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता। हाँ, बिजौलियाके शिलालेखसे व्याघ्ररक (बघेरा) में जैन मन्दिर निर्माण करनेका जो उल्लेख आया है वह इसी मन्दिरके सम्बन्धमें प्रतीत होता है। बिजौलियाके शिलालेखमें तत्सम्बन्धी उल्लेख इस प्रकार है
"श्रीमालशैलप्रवरावचूल: प (पू) र्वोत्तर सत्वगुरुः सुवृत्त (त्तः)। प्राग्वाटवंशोऽस्ति व (ब) भूव तस्मिन्मुक्तोपमो वैश्रवणाभिधानः ॥३१॥ तडागपत्तने येन कारितं जिनमन्दिरं (रम्)। (तीर्खा) भ्रान्त्वा यस (श) स्तत्वमेकत्रस्थिरतां गतां (तम्) ॥३२॥ योऽचीकरच्चन्द्रसु (शु) रि (चि) प्रभाणि व्याघ्ररकादौ जिनमंदिराणि । कीर्तिद्रमारामसमृद्धिहेतोविभांति कंदा इव यान्यमंदाः ॥३३॥"
अर्थ-श्रीमाल पर्वतके उन्नत शिखरके समान अक्षय सामर्थ्यवान् और सदाचारपरायण यह प्राग्वाट (पोरवाड़) वंश है। उसमें मोतीके समान वैश्रवण हुआ। वैश्रवणने तडागपत्तनमें जिनमन्दिर बनवाया जो घूम-फिरकर एक स्थानपर स्थित हए यशके समान लगता था। उसने व्याघ्ररक (बघेरा) आदि स्थानोंपर चन्द्रमाके समान धवल जिनमन्दिर बनवाये थे। ये मन्दिर कीर्तिरूपी वृक्षोंके उद्यानको बढ़ानेवाले निर्दोष तनोंके समान सुशोभित हैं।
बिजौलिया के इस शिलालेखके अनुसार श्रेष्ठी लोलकने बिजौलियाके पाश्वनाथ मन्दिरकी प्रतिष्ठा संवत् १२२६ में फाल्गुन कृष्णा ३ गुरुवारको करायी थी। इसी शिलालेखको सूचनानुसार श्रेष्ठी लोलकके पूर्वज वैश्रवणने व्या रकमें जिनालय निर्मित कराया था। लोलक श्रेष्ठो उक्त शिलालेखमें दी हुई वंशावलीके अनुसार वैश्रवणसे आठवीं पीढ़ीमें हुआ था। औसतन एक पीढ़ीके