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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ व्यक्तियोंके उपद्रवोंसे बचानेके लिए चर्याके समय वस्त्र धारण करनेका अपवाद मार्ग इन्होंने ही बताया था। ___ इनके बाद विशालकीति ( संवत् १२६६ ), शुभकीर्ति, धर्मचन्द्र (संवत् १२७१), रत्नकीर्ति (संवत् १२९६) ये सभी अजमेरमें रहे। भट्टारक प्रभाचन्द्र (संवत् १३१०) दिल्लीमें रहे। वे ब्राह्मण जातिके थे और अजमेरके निवासी थे। बलात्कारगणको नागौर शाखाके भट्टारक भुवनकीर्ति (संवत् १५८६) छावड़ा गोत्रके थे और अजमेर निवासी थे। भट्टारक धर्मकीति (संवत् १५९०) अजमेरके सेठी वंशके थे। भट्टारक अनन्तकीर्ति (संवत् १७७३) अजमेरके पाटनी गोत्रके थे। भट्टारक विजयकीर्ति संवत् १८०२ में अजमेरमें पट्टारूढ़ हुए। __ अजमेर नगरमें भट्टारक नेमिचन्द्रकी शिष्या सबीरा बाईने वसुनन्दि श्रावकाचारको प्रति करायी थी। उसकी प्रशस्तिमें भट्टारक नेमिचन्द्र तककी भट्टारक परम्परा इस प्रकार दी हुई हैभट्रारक पद्मनन्दि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र. चन्द्रकीति । ये सब उत्तरोत्तर पदाधिकारी होते रहे । चन्द्रकीतिको आम्नायमें भुवनकीर्ति (संवत् १५४६), धर्मकीति (सं. १५९०), विशालकीर्ति (संवत् १६०१), लिखिमीचन्द्र (संवत् १६११ ), सहस्रकीति ( संवत् १६३१ ) और नेमिचन्द्र (सं. १६५०) हुए। ____ भट्टारक नेमिचन्द्रके पश्चात् सूरतसे प्रकाशित गौतमचरित्रकी प्रशस्तिके अनुसार यशःकोति, भानुकोति, श्रीभूषण, धर्मचन्द्र हए। तत्पश्चात् इस शाखामें देवेन्द्रकीति. सुरेन्द्रकीति, रत्नकीर्ति, विद्यानन्द, महेन्द्रकीर्ति, अनन्तकीर्ति, भवनभूषण और विजयकीर्ति भट्टारक हुए। अजमेरसे लगभग ५ कि. मी. दूर आंतेड़में इनमें से कुछ भट्टारकों और उनके शिष्योंको छतरियां, चबूतरे और चरण बने हुए हैं। इनके ऊपर उत्कीर्ण अभिलेखोंसे इन भट्टारकोंकी स्वर्गारोहण तिथिका परिचय मिलता है जो ऐतिहासिक दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहां कई छतरियों और चबूतरोंपर चरण या लेख नहीं हैं । वे सम्भवतः नष्ट हो गये। जिनके संवत् पढ़े जा सके, उनकी सूची इस प्रकार है भ. रत्नकोति (सं. १५७२), भ. अनन्तकोति (सं. १७६०), भ. रत्नकीर्ति (सं. १७६६), भ. विशालकीति (सं. १७८२), भ. देवेन्द्रकीर्ति (सं. १८१०), भ. राजकीर्ति (सं. १८१०), भ. विजयकीर्ति (सं. १८११), भ. सुरेन्द्रभूषण (सं. १८१३), भ. भुवनकीति (सं. १८९२), भ. रत्नभूषण (सं. १९९२), भ. ललितकीर्ति (सं. १९९२)। प्रमुख मन्दिर यहाँके जैन मन्दिरोंमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और दर्शनीय सेठजीकी नशिया है । यह सिद्धकूट चैत्यालय नशिया कहलाती है। यह मन्दिर लाल वर्णका है। इसमें मूलनायक भगवान् आदिनाथकी प्रतिमा है । इसका निर्माण सन् १८६५ में सेठ मूलचन्द सोनीने कराया था। इसमें ८०४४० फुटके एक कक्षके आधे भागमें तेरह द्वीपकी रचना है जिसमें मुख्यतया ढाई द्वीपका विस्तारसे अंकन किया गया है । आठवें द्वीपमें नदीश्वरकी रचना अंकित है। शेष आधे भागमें भगवान् ऋषभदेवकी जन्मनगरी अयोध्यापुरीकी भव्य रचना है। तेरह द्वीपकी रचनामें केन्द्रमें सुमेरु पर्वत है। उसके चारों ओर जम्बूद्वीप, उसको वेष्टित किये हुए लवणोदधि, उसके चारों ओर धातकी खण्ड, कालोदधि, पुष्कराध द्वीप एक दूसरेको घेरे हुए हैं। अयोध्यानगरीकी रचनामें मध्यमें नाभिरायका प्रासाद है एवं अगल-बगलमें पिता व माताके महत्त्व हैं। उसके चारों ओर सामन्तों
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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