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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कार्यवाहियां जयपुर नगर तक सीमित न रहकर सम्पूर्ण जयपुर राज्यमें फैल गयीं। जयपुर, आमेर, सवाई माधोपुर, खण्डार आदि स्थानोंके जैन मन्दिर इस समय लूटे गये और अनेक जैन मूर्तियाँ तोड़ी गयीं। इन काण्डोंके प्रत्यक्षदर्शी कविवर बखतराम शाहने अपनी 'बुद्धिविलास' और कविवर थानसिंहने 'सुबुद्धि प्रकाश में इन घटनाओंकी चर्चा की है। इन रचनाओंसे यह भी पता चलता है कि इन दुष्काण्डोंकी पुनरावृत्तिसे त्रस्त होकर अनेक जैन जयपुर नगरको छोड़कर अन्यत्र चले गये । अपने-अपने स्वार्थोंको दृष्टिमें रखकर इन काण्डोंके पश्चात् जयपुरके उक्त नरेशोंने शान्ति तो स्थापित को, किन्तु जैन मन्दिरों और मूर्तियोंका विध्वंस करनेवाले किसी व्यक्तिको कोई सजा नहीं दी गयी। जिन जैन मन्दिरोंपर इन्होंने बलात् अधिकार कर लिया था, उन मन्दिरोंको भी जैनोंको वापस नहीं दिलाया गया। इससे इस दुष्कार्यमें इन नरेशोंका हाथ होनेसे इनकार नहीं किया जा सकता।
यहाँ ऐसे संकट कालमें भी जैन समाजमें ऐक्य और सद्भावकी स्थापना नहीं हो सकी और उस समय भी तेरहपन्थ और बीसपन्थके रूप में स्पर्द्धा और द्वेषको भयानक अग्निको विवेकशील लोग हवा देते रहे, एक दूसरेको नीचा दिखानेमें ही लगे रहे। महापण्डित टोडरमलकी हत्याका कोई विरोध न होना इसका प्रमाण है।
आमेर और जयपुर दोनों ही भट्टारकोंके केन्द्र रहे हैं। पहले भट्टारकोंकी गद्दी आमेरमें थी। लेकिन जयपूरमें राजधानी बननेके पश्चात् भट्रारक गही जयपूरमें स्थानान्तरित कर दी गयी। भट्टारक क्षेमेन्द्रकीति ( संवत् १८१५ ), भट्टारक सुरेन्द्रकीति ( संवत् १८२२), भट्टारक सुखेन्द्रकीर्ति ( संवत् १८४२), भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति ( संवत् १८८०), भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ( संवत् १८८३ ), भट्टारक महेन्द्रकीर्ति ( संवत् १९३९ ) एवं भट्टारक चन्द्रकीति ( संवत् १९७५) सभीका जयपुरमें ही पट्टाभिषेक हुआ। अन्तिम दो भट्टारकोंको छोड़कर शेष भट्टारकोंका अपने समयमें बड़ा प्रभाव था। जयपुरमें संवत् १८६१ में जो विशाल प्रतिष्ठा हुई थी, उसमें भट्टारक सुखेन्द्रकीतिका प्रमुख हाथ था । आमेरमें समृद्ध शास्त्र भण्डारको स्थापना इन्हों भट्टारकोंको देन है।
जयपुरके जैन विद्वान्
जयपुर राज्यको राजधानी आमेर थी। आमेर नरेशोंमें महाराज मानसिंहकी ख्याति भारतीय इतिहासमें एक महान वीरके रूपमें हुई है। वे सम्राट अकबरके प्रधान सेनापति थे और अकबरकी पटरानी जोधाबाईके सहोदर भ्राता थे। अकबरके साम्राज्य-विस्तारमें इनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। इन्होंने बड़े-बड़े युद्धोंका सफलतापूर्वक संचालन किया था और उनमें विजयलाभ किया था। सवाई जयसिंहने सन् १७२५ में 'जय निवास' नामक महल बनवाया और सन् १७२७ में उसके चारों ओर योजनानुसार एक नवीन नगरका निर्माण कराया। यही नगर जयपुरके नामसे विख्यात हुआ। यद्यपि इस नगरके निर्माणको केवल ढाई सौ वर्ष हुए हैं, किन्तु जयपुर नरेश कलारसिक एवं विद्याप्रेमो रहे । इसलिए जयपुर नगरमें अनेक कलाविद् और विद्वान् हुए और उन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा जयपुरकी ख्यातिमें चार चाँद लगा दिये। सरस्वतीको साधनामें जैनोंका भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। ढाई सौ वर्षकी इस अल्प अवधिमें अनेक जैन विद्वानोंने विविध विषयोंमें साहित्य सृजन करके हिन्दी साहित्यके कोषको अत्यन्त समृद्ध किया। जैन वाङ्मयके क्षेत्रमें इन विद्वानोंका जितना ऊंचा स्थान है, उतना ही हिन्दी साहित्यके क्षेत्रमें भी है। इन्होंने अपने साहित्यमें गद्य और पद्य दोनों ही विद्याओंको अपनाया है।