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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ करके और राजस्थानके प्रत्येक मन्दिरमें अपनी ओरसे मूर्तियां पहुँचाकर बीसपन्थ और भट्टारकी प्रतिष्ठा एवं प्रभावकी पुनः प्रतिष्ठा की। दोनों सम्प्रदायोंकी यह स्पर्धा उभरकर जयपुरके सामाजिक संगठनमें भी परिलक्षित हुई। बीसपन्थ सम्प्रदायने जयपुरके पाटौदी मन्दिर और चाकसूके मन्दिरमें अपनी पंचायतें स्थापित की तो तेरहपन्थी सम्प्रदायने भी बड़ा मन्दिर और बधीचन्दजीके मन्दिर में अपनी पंचायतोंकी स्थापना की।
यह कितने आश्चर्यको बात है कि जयपूरमें परम्परवादो और सुधारवादी विचारधाराओंमें विभक्त जैन समाज परस्परमें उस कालमें संघर्षरत थी, जिस समय वहाँकी सम्पूर्ण जैन समाजपर भयानक संकट आया हुआ था। उस समय जयपुरके शासक अपनी ही समस्याओंमें उलझे हुए थे। सवाई ईश्वरीसिंहको (संवत् १८००-१८०७) सात वर्षके अल्पकालिक शासनमें मराठों और मुगलोंके निरन्तर आक्रमणोंसे घबड़ाकर आत्महत्या करनी पड़ी। तत्पश्चात् सवाई माधोसिंह (संवत् १८०७से १८२५)का अधिकांश समय मराठोंसे लड़ने में ही व्यतीत हुआ । इसका लाभ वहाँके कुछ साम्प्रदायिक तत्त्वोंने उठाया। इनका सरगना श्याम तिवाड़ी नामक एक व्यक्ति था, जिसने संवत् १८१८ में उक्त नरेशको किसी प्रकार प्रभावित कर लिया। फलतः नरेशने उसे सभी धर्मगुरुओंका प्रधान बना दिया और उसे प्रशासकीय अधिकार भी दे दिये। अधिकार प्राप्त होते ही तिवाड़ीने अपना नकाब उतार फेंका और ईर्ष्या और द्वेषसे प्रेरित होकर जैनोंके विरुद्ध अनेक आदेश निकाले । उन आदेशोंपर नरेशकी स्वीकृति प्राप्त कर ली। इन आदेशोंके द्वारा उसने जैन मन्दिरोंमें पूजा-पाठपर प्रतिबन्ध लगा दिया; जैनोंको रात्रि-भोजनके लिए बाध्य किया जाने लगा; जैन मन्दिरोंको तोड़ा जाने लगा; अनेक जैन मन्दिरोंको शिव मन्दिरमें परिवर्तित किया जाने लगा। आमेर और जयपुर में ऐसे अनेक जैन मन्दिर हैं, जिनको उसके कोपका भाजन बनना पड़ा है। जब इन अत्याचारोंके विरुद्ध जैनोंने आवाज बुलन्द को और राज्यको स्थितिको खतरा पैदा होनेकी सम्भावना प्रबल हो उठो, तब महाराजाने श्याम तिवाड़ीसे अधिकार छीनकर उसे जयपुर नगरसे निकाल दिया। ___इससे जयपुरमें कुछ समयके लिए शान्ति हो गयी, किन्तु वहाँके असामाजिक तत्त्व अवसरकी प्रतीक्षा करते रहे। संवत् १८२१ में जयपुरमें जैनोंने इन्द्रध्वज विधानका महान् आयोजन किया। इसमें हजारों व्यक्ति बाहरसे आये थे। ऐसा उत्सव जयपुर नगरमें पहले कभी नहीं हुआ था। इससे उन साम्प्रदायिक तत्त्वोंने खिसियाकर कुछ समय पश्चात् जैनोंपर एक शिव-मूर्ति तोड़नेका आरोप लगाया और महाराजाको भी प्रभावित कर लिया। जिस समय राजाकी नाकके नीचे जैनोंके मन्दिर और मूर्तियां तोड़ी जाती रहीं, उस समय उस राजाको न्यायकी सुधि नहीं आयी, किन्तु शिवलिंग तोड़नेके मिथ्या आरोपको जांच किये बिना उसने उसपर विश्वास कर लिया और वह अकस्मात् ही इतना न्यायप्रिय हो उठा कि उसने अनेक जैनोंको गिरफ्तार कर लिया और जैन समाजके महान् नेता और मूर्धन्य विद्वान् महापण्डित टोडरमलजीको मृत्युदण्ड दे दिया। इससे भी अधिक क्रूरता और अधमता उसने उस समय दिखायी, जब उसने उनकी लाशको गन्दगीके ढेरपर फिंकवा दिया। रियासती दमन और गुलामीमें पिसती हुई जैन समाज आतंक और भयके मारे एक शब्द तक इसके विरोधमें नहीं बोल सकी। इससे राज्यमें मौतकी-सी शान्ति हो गयी।
संवत् १८२६ में ऐसे ही तत्त्वोंने एक बार फिर अपना सिर उठाया। उस समय जयपुरकी गद्दीपर सवाई माधोसिंहका पांच वर्षीय पुत्र सवाई पृथ्वीसिंह आसीन था। राज्यसत्तापर इस समय वस्तुतः इन असामाजिक तत्त्वोंका ही प्रभाव था। अवसर पाते ही इन्होंने जैन मन्दिरोंको लूटना और जैन मूर्तियोंको तोड़ना चालू कर दिया। राज्यमें गुण्डोंकी बन आयी। इनकी ये