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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
सुधारवादी आन्दोलनने जोर पकड़ा। सांगानेरमें अमरा भौंसा अपार वैभव और सम्पत्तिके स्वामी थे। भट्टारकोंके विरोधी होनेसे उनके कारण तेरहपन्थ आन्दोलन शक्तिशाली हो गया। अमरा भौंसाका पूत्र जोधराम वैभवसम्पन्न होनेके साथ-साथ विद्वान भी था। उसने संस्कृत और हिन्दीमें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की थी। उसने भी इस आन्दोलनका समर्थन किया।
भट्टारक नरेन्द्रकीतिके बाद क्रमशः भट्टारक सुरेन्द्रकीति ( संवत् १७२२ ), भट्टारक जगत्कीर्ति ( संवत् १७३३ ), भट्टारक देवेन्द्रकीति ( संवत् १७७०), भट्टारक महेन्द्रकीर्ति ( संवत् १७९० ) और भट्टारक क्षेमेन्द्रकीति ( संवत् १८१५ ) पट्टाधीश हुए। १८वीं शताब्दीके अन्तिम और १९वीं शताब्दीके प्रथम चरणमें देशमें जयपुर, आगरा, मुलतान आदि अनेक स्थानोंपर मन्दिरोंमें अध्यात्म शैलीके नामसे स्वाध्याय गोष्ठियां चलती थीं। इस कालमें जयपुर में प्रसिद्ध विद्वान् पं. टोडरमलजी, कविवर दौलतरामजी, पण्डित जयचन्द छाबड़ा, पण्डित गुमानीरामजी भावसा, पण्डित सदासुखजी कासलीवाल आदि अनेक विद्वान हुए, जिन्होंने जैन वाङ्मयकी महान् सेवा की। ये सभी भट्टारक सम्प्रदायमें आयी हुई विकृतियों और आडम्बरोंके कट्टर विरोधी थे। जयपुर राज्यके तत्कालीन दोवान रतनचन्द्र, दीवान बालचन्द्र, भाई रायमल्ल आदि समाजमान्य और प्रभावशाली व्यक्तियोंका भी इस आन्दोलनको पूरा समर्थन प्राप्त था। इस आन्दोलनने समाजके प्रबुद्ध और विचारक वर्गकी सहज ही सहानुभूति प्राप्त कर ली। ये अध्यात्म शैलियाँ हो तेरहपन्थकी गोष्ठियोंमें परिवर्तित हो गयीं। समाजपर इस आन्दोलनका गहरा प्रभाव पड़ा, विशेषतः उत्तर भारतकी जैन समाजके चिन्तन और पूजा-पाठपर इसने गहरी छाप अंकित कर दी।
अब यह केवल आन्दोलन ही नहीं था, बल्कि इस विचारधाराने एक सम्प्रदायका रूप ले लिया था। पं. टोडरमलजी-जैसे विद्वानोंके सहयोगने इस सम्प्रदायकी विचार-पद्धतिको अत्यन्त तेजस्वी और प्रभावक बना दिया था। इसी परिप्रेक्ष्यमें जयपुरके तेरहपन्थी समाजने संवत् १८२१ में जयपुर में 'इन्द्रध्वजपूजा महोत्सव' का आयोजन किया। इस आयोजनमें दीवान रतनचन्द्र और दीवान बालचन्द्रका सम्पूर्ण सहयोग था। जयपुर नरेशने इस आयोजनको सफल बनानेके लिए सभी राजकीय सुविधाएं दी थीं। इस उत्सवमें देशके सभी भागोंसे साधर्मीजन हजारोंको संख्यामें सम्मिलित हुए थे। लगता है, यह आयोजन समाजपर तेरहपन्थ सम्प्रदायका प्रभाव अंकित करनेके लिए किया गया था।
दूसरी ओर समाजमें परम्परावादी विचारधाराका, जिसे बोसपन्थ कहा जाता थाप्रभाव भी कुछ कम नहीं था। भट्टारक इस विचारधाराके पोषक और प्रतिनिधि थे। तत्कालीन
स्थितियोंका अध्ययन करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि तेरहपन्थ सम्प्रदायको चुनौतीको बीसपन्थ सम्प्रदायने उस समय स्वीकार कर लिया था। इसीलिए भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्तिका पट्टाभिषेक संवत् १८१५ में जयपुरमें ही किया गया। इनके पश्चात् सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक पोठपर आसीन हुए और उनका पट्टाभिषेक भी संवत् १८२२ में जयपुरमें ही किया गया। इतना ही नहीं, भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिने भट्टारक पीठ भी जयपुरमें स्थानान्तरित कर दिया। विद्वानोंका उत्तर विद्वानोंने दिया और उत्सवका उत्तर उत्सव द्वारा दिया गया। भट्टारक परम्पराके कट्टर समर्थक पण्डित बखतराम शाहने पण्डित टोडरमलजीकी विचारधाराका खण्डन किया। उन्होंने 'मिथ्यात्व खण्डन' एवं 'बुद्धिविलास' नामक ग्रन्थोंमें तेरहपन्थकी विचारधाराको कड़ी आलोचना की। इसी प्रकार भट्टारक सुरेन्द्रकीतिके नेतृत्वमें संवत् १८२६ में सवाई माधोपुरमें पंचकल्याणक प्रतिष्ठाका विशाल समारोह किया गया। प्रतिष्ठाकारक नन्दलाल संगहीने इस समारोहमें लाखों रुपये व्यय