________________
राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ
इन मन्दिरोंके अतिरिक्त उल्लेखनीय मन्दिरोंमें पाटौदीका मन्दिर, लश्करका मन्दिर, बड़े दीवानजी का मन्दिर, छोटे दीवानजीका मन्दिर, दारोगाजीका मन्दिर, ठील्योंका मन्दिर और चौबीस महाराजका मन्दिर सम्मिलित है।
___ वर्तमानमें खानियामें राणाओंकी नशियाके पास पहाड़के ऊपर चूलगिरि पार्श्वनाथ मन्दिर तो तीर्थक्षेत्र ही बन चुका है। इसके दर्शनोंके लिए प्रतिदिन नगरके और बाहरके अनेक व्यक्ति जाते हैं। पहाड़पर जानेके लिए पक्की सीढ़ियां बनी हुई हैं। मन्दिरके पृष्ठ भागमें कच्ची सड़क भी बन गयी है। इसपर ट्रक और कार सुविधापूर्वक चल सकती हैं। इस पुण्य क्षेत्रको स्थापना और मन्दिरोंके निर्माणमें आचार्यरत्न श्री देशभूषणजीकी प्रेरणा ही मुख्य कारण थी। सन् १९६३ में यह कार्य आरम्भ हुआ था और सन् १९६४ में पार्श्वनाथ तथा अन्य मूर्तियोंकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। इस अल्पकालमें विशाल मन्दिरका निर्माण हुआ, सीढ़ियां बनीं, सड़क बनी, बिजली लगी, पाइप लाइन डाली गयी, राणाओंकी नशियोंके कुएं में मोटर फिट की गयी। मन्दिरमें अनेक टोंकें और वेदियाँ बनीं । मन्दिरमें दो चौक हैं, जिनके फर्श मकरानेके बने हुए हैं।
यहां मूलनायक भगवान पार्श्वनाथको श्यामवर्ण ७ फोट ३ इंच अवगाहनावाली खड्गासन मति है। उसके आगे पद्मावती देवी विराजमान हैं। ये प्रांगणके मध्य बनी एक वेदीमें विराजमान हैं। इनके आगे दो मन्दरियोंमें दायीं ओर नेमिनाथ और बायीं ओर महावीरकी मूर्तियाँ विराजमान हैं।
इनके चारों ओर २४ तीर्थंकरोंकी २४ टोंकें बनी हुई हैं। इस मन्दिरके पृष्ठभागमें भूगर्भमें भगवान् महावीरकी २ फीट ६ इंच उन्नत पद्मासन मूर्ति विराजमान है तथा इसके प्रांगणमें १७ फीट ऊँची महावीर स्वामीकी खड्गासन मूर्ति है। ___मन्दिरके चारों ओर दूर तक पर्वतमाला छितरायी हुई है, जिसके कारण यहाँका दृश्य अत्यन्त मनोरम लगता है। यात्रियों एवं त्यागियोंके ठहरनेके लिए यहाँ धर्मशाला बन गयी है। यह स्थान नगरके कोलाहलसे दूर एकान्तमें है और ध्यान-साधनाके लिए अत्यन्त उपयुक्त है। जयपुरके भट्टारक
बलात्कारगणकी उत्तर शाखाके भट्टारक पद्मनन्दिके एक शिष्य भट्टारक शुभचन्द्रका संवत् १४५० में पट्टाभिषेक हुआ था। उन्होंने दिल्लीमें स्वतन्त्र भट्टारक पोठको स्थापना को । इनके पदपर संवत् १५०७ में जिनचन्द्र अभिषिक्त हुए। मुड़ासाके शाह जीवराज पापड़ोवालने इनके द्वारा संवत् १५४८ में सैकड़ों मूर्तियोंको प्रतिष्ठा करायी थी। इनके एक शिष्य रत्नकोतिने नागौर में भट्टारक पीठ स्थापित किया। इनका पट्टाभिषेक संवत् १५८१ में हुआ था। भट्टारक जिनचन्द्रके पश्चात् प्रभाचन्द्र दिल्लीको भट्टारक पीठपर आसीन हुए । इन तीनों भट्टारकोंका राजा और प्रजापर बड़ा प्रभाव था। इन्होंने अपनी विद्वत्ता एवं तन्त्र-मन्त्रको शक्तिसे जैनधर्मको बड़ी प्रभावना की। इनके कालमें अनेक मन्दिरोंका निर्माण हुआ, अनेक ग्रन्थोंका निर्माण और प्रतिलिपि हुई। भट्टारक प्रभाचन्द्रके एक शिष्य मण्डलाचार्य धर्मचन्द्रने संवत् १५८१ में चित्तौड़में भट्टारक पीठकी स्थापना की। चित्तौड़पर मुगलोंके निरन्तर आक्रमण होते रहते थे। अतः भट्टारक धर्मचन्द्रके शिष्य ललितकीर्तिने भट्टारक पीठ चित्तौड़से आमेरमें स्थानान्तरित कर दिया। मुख्य पीठपर भट्टारक प्रभाचन्द्रके पश्चात् चन्द्रकीर्ति, देवेन्द्रकीर्ति और नरेन्द्रकीर्ति हुए। नरेन्द्रकीर्ति अत्यन्त प्रभावशाली थे। किन्तु इनके समयमें प्रतिष्ठा, विधानादिमें व्याप्त धर्मविरुद्ध क्रियाकाण्डों और आडम्बरोंके विरुद्ध समाजके एक वर्ग में असन्तोष व्याप्त हो रहा था। फलतः तेरहपन्थके नामसे