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________________ भारतके बिगम्बर जैन तीर्थ जलेबी।" सम्भवतः वनराज दीवानजीके हृदयको भाषाको समझ गया और दूसरे ही क्षण सिंह जलेबी खा रहा था । जीवनमें पहली बार सिंहने जलेबियाँ खायों और जीवनमें पहली बार दर्शकोंने सिंहको जलेबियां खाते देखा । अविश्वसनीय किन्तु सत्य । हृदयको भाषा पशु भी समझते हैं । .: एक दूसरी घटना और-दीवानजीसे द्वेष रखनेवाले मुसाहिबोंने महाराजके फिर कान भरे । फलतः महाराज शिकार खेलनेके लिए जाने लगे तो दीवानजीको भी साथ ले लिया । जंगलमें हिरणोंका एक झुण्ड देखा तो महाराजने अपना घोड़ा उनके पीछे डाल दिया। आगे-आगे भयविह्वल हिरण, उनके पीछे महाराजका घोड़ा और महाराजके पीछे दीवान अमरचन्द्रका घोड़ा। दीवानजी सोचते जा रहे थे, "क्या बिगाड़ा है इन निरीह मूक पशुओंने मनुष्यका जो इन्हें जबतब मारता फिरता है और कैसा अविवेकी है यह मनुष्य जो इन निबंल पशुओंको मारकर अपनी वीरताका दपं करता है। ये बेचारे भागकर कहाँ जायेंगे। जब राजा ही इनके प्राण लेनेको आतुर है तो ये अपने प्राण कैसे बचायेंगे? अकस्मात् उनके अन्तर्भाव वाणी बनकर फूट पड़े-"हिरणो! मैं कहता हूँ, जहाँ हो वहीं रुक जाओ। जब रक्षक ही भक्षक हो जाये तो बचकर कहाँ जाओगे।" वाणी नहीं निकली मानो कोई सम्मोहन मन्त्र निकला हो। हिरण जहाँ थे, वहीं खड़े रह गये। दीवानजी आगे बढ़े, विनत किन्तु करुणाविह्वल स्वरमें बोले-"महाराज ! ये खड़े हैं आपके सामने, जितने चाहिए, ले लें।" महाराज कभी दीवानजीको देखते, कभी हिरणोंको। जो कुछ देखा, वैसा तो जीवनमें कभी नहीं देखा था। अद्भुत था, अपूर्व था। महाराजके हृदयसे एक हिलोर-सी उठी, बोले-"दीवानजी! तुमने मेरी आंखें खोल दीं । आजसे शिकारका त्याग करता हूँ।" ऐसे थे अमरचन्द्र दीवान । उनके बनवाये हुए कई मन्दिर जयपुरमें अब भी विद्यमान हैं। उल्लेखनीय जैनमन्दिर . यों तो जयपुरमें लगभग १८७ चैत्यालय एवं जैनमन्दिर हैं, किन्तु कुछ मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं; जैसे महावीर मन्दिर कालाडेरा-यहां भगवान महावीरको लाल वर्णको खड्गासन मूर्ति है, जो संवत् ११४८ में प्रतिष्ठित हुई थी। इस मूर्तिके चमत्कारोंको अनेक कहानियां नगरमें प्रचलित हैं । कहा जाता है कि भक्तजनोंकी मनोकामनाएं यहाँ पूरी हो जाती हैं। इस ख्यातिके कारण यहां प्रचुर संख्यामें दर्शनार्थी आते हैं। ., सिरमौरियोंका मन्दिर-यह मन्दिर छतोंमें हुई कलापूर्ण रचनाके कारण प्रसिद्ध है। बधीचन्दजीका मन्दिर-इस मन्दिरमें स्वर्णकी कलाकारी दर्शनीय है। इसका गुम्बज अत्यन्त कलापूर्ण है । इसी मन्दिरमें बैठकर महापण्डित टोडरमलजी शास्त्र-रचना किया करते थे। दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर-पं. टोडरमल इस मन्दिरमें शास्त्र-प्रवचन किया करते थे। संघीजीका मन्दिर-इस मन्दिरमें सन् १०८४ को एक चतुर्मुखी मूर्ति है तथा ११-१२वीं शताब्दीकी अन्य भी कई मूर्तियाँ हैं। साँवलाजीका मन्दिर-भगवान् नेमिनाथकी कृष्णवर्णकी भव्य प्रतिमा है। यह अत्यन्त अतिशय सम्पन्न है। सांगानेर और आमेरके मन्दिरोंमें भी कई मूर्तियाँ ११-१२वीं शताब्दीकी हैं।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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