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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ संघी झ्थाराम-आप बड़े प्रतिभाशाली, उदारदानी और प्रबन्धपटु व्यक्ति थे। जैनधर्ममें आपकी गहरी निष्ठा थी। मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा और जीर्णोद्धार कराने में आपकी विशेष रुचि थी। आपकी प्रशासनिक योग्यताके कारण चोरी, रिश्वत-जैसे अनैतिक कार्य करनेका साहस किसीको नहीं होता था। इन गुणोंके कारण जनतामें आपका बड़ा आदर भी था और आतंक भी। उस समय सेनाका सारा कार्य इनके बड़े भाई संघी हुकुमचन्दके सुपुर्द था।
इन दिनों रियासतोंमें अंग्रेज अपने पैर जमा रहे थे। रियासतोंमें रेजीडेण्ट पोलिटिकल एजेण्ट आदि पदोंपर अंग्रेजोंकी नियुक्तियां हो चुकी थीं। किन्तु जयपुर रियासतके कार्यों में अंग्रेजोंका हस्तक्षेप झूथारामको पसन्द नहीं था। वे गुलामीको जंजीरोंको मजबूत करनेवाली अंग्रेजी चालोंको भी पसन्द नहीं करते थे, बल्कि उनका विरोध करते थे। अंग्रेज अधिकारी इस विद्रोहको कैसे सहन करते। उन्होंने झूथारामके विरुद्ध षड्यन्त्र करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ जागीरदारों और बड़े लोगोंको लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और उन्हें प्रधानामात्य पदसे हटाने का प्रयत्न करने लगे। षड्यन्त्र भयानक था। जयपुर महाराजको हत्या २३ फरवरी १८३५ को करवा दी गयी और इसका सम्पर्ण दोष झथारामके सिर मढ दिया गया। पोलिटिकल एजेण्टने कलकत्ता से फौरन आदेश मँगाकर उन्हें प्रधानामात्य पदसे पृथक् करके पहले एक महलमें और फिर दौसामें नजरबन्द कर दिया।
जयपुरके पोलिटिकल एजेण्ट मि. आल्ब्सने जो रिपोर्ट कलकत्ता भेजी, उसमें उसने लिखा था कि अंगरेजोंका आना जयपुरको जनताको बहुत अच्छा लगा है। किन्तु जनता महाराजकी हत्या और उनके लोकप्रिय दीवानजीको नजरबन्दीसे अत्यन्त क्षुब्ध हो उठी है। अंगरेजोंने 'जयपुर ट्रायल' नामक जो पुस्तक छापी थी, उसके अनुसार एक दिन दिनांक ४ जून १८३५ को दिन-दहाड़े महलके सामने आल्ब्सको हजारों लोगोंने घेर लिया। किन्तु वह किसी प्रकार बच गया। इस घटनाको षड्यन्त्रका नाम देकर उसको जिम्मेदारी भी झूथाराम और उनके भाई संघी हुकमचन्द्रके सिर थोप दी गयी। फिर दो मुकदमे चलाये गये। एक संघी झूथाराम, उनके भाई संघी हुकमचन्द्र और पुत्र फतहलालपर। दूसरा दोवान अमरचन्द्र आदिपर। दीवान अमरचन्द्र संघी हुकमचन्द्रके समधी थे। दीवान अमरचन्द्रपर हत्याका इलजाम लगाया गया और उन्हें शूलीपर लटका दिया गया। संघी झूथाराम आदिपर षड्यन्त्र करने, विद्रोह भड़काने और आल्ब्सपर आक्रमण करवानेका जुर्म लगाया गया और दोनों भाइयोंको आजन्म कारावासका दण्ड दिया गया। उन्हें चुनारगढ़ ( उत्तरप्रदेश) के किलेमें कैद कर दिया गया तथा उनके परिवारवालोंको २४ घण्टेमें जयपुर छोड़नेका आदेश दिया गया।
दीवान अमरचन्द्र-आप बड़े धर्मात्मा और दयालु प्रकृतिके थे। जब ये दोवान पदपर आसीन थे, उस समयकी दो घटनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं, जिनसे उनकी दयालुता, दृढ़ धर्मनिष्ठा और निर्भयतापर प्रकाश पड़ता है। एक बार लोगोंके कहनेसे जयपुर महाराजने चिड़ियाघरके बबर शेरके भोजनकी व्यवस्थाका भार दीवानजीको सौंप दिया। दीवानजीके समक्ष धर्मसंकट आ गया। शेरका आहार मांस है, किन्तु दीवानजी मांसकी व्यवस्था कर नहीं सकते थे। किन्तु दीवानजी कर्तव्यपरायण थे। वे सिंहका आहार थालोंमें लेकर चले। पिंजड़ेका द्वार खुलवाया। शेर भूखा था, जोरोंसे दहाड़ा। दोवानजी कर्तव्यपर प्राण देनेके लिए तैयार थे । वे थाल लेकर निर्भय होकर आगे बढ़े। थाल जमीनपर रखा और बोले-"वनराज ! तुझे भोजन चाहिए तो ये जलेबियां रखी हैं, तुझे मांस चाहिए तो मैं खड़ा हूँ। मैं मांस दे नहीं सकता, यह मेरे धर्मका प्रश्न है। मांस तेरे लिए जरूरी नहीं; इन जलेबियोंसे भी पेट भर सकता है। अब तुझे चुनाव करना है-मैं या