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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
मेला
यहाँ कोई वार्षिक मेला नहीं होता। क्षेत्रका पता इस प्रकार हैमन्त्री, श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर झालरापाटन (जिला झालावाड्) राजस्थान
जयपुर
महत्त्व
राजस्थानकी राजधानी जयपुर गुलाबी नगरके नामसे सारे देश में प्रसिद्ध है। इस नगरको नींव महाराज सवाई जयसिंहजीने १८ नवम्बर सन् १९२७ में डाली थी। यह शहर राव किरपारामजी सरावगीके परामर्शपर बसाया गया था। वे उस समय औरंगजेबके दिल्ली दरबारमें वकील थे। महाराज जयसिंहजीने औरंगजेबसे सवाईकी पदवी प्राप्त की थी। इस शहरका निर्माण योजनानुसार व्यवस्थित ढंगसे किया गया था। योजना निर्माणका कार्य विद्याधर नामक एक महान शिल्पीको सौंपा गया था। उसकी योजनाके अनुसार इस नगरकी रचना चौपड़के रूपमें की गयी। सभी बाजार एक सिरेसे दूसरे सिरे तक सीधे चले गये हैं। इसी तरह गलियाँ और रास्ते भी सीधे चले गये हैं। शहरके चारों ओर शहरपनाह (चहारदीवारी) बनायी गयी जिसमें ऊँची-ऊँची बर्जे और बीच में ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बनाये गये। इस परकोटेके अन्दर लम्बाई दो मील और चौड़ाई एक मील है । अब तो परकोटेके बाहर दूर-दूर तक शहरका विस्तार हो गया है । सन् १९७१ की जनगणनाके अनुसार इस नगरकी आबादी लगभग ६,५०,००० तथा जैनोंकी संख्या २७००० है।
इस नगरके संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह बहत बड़े गणितज्ञ और ज्योतिषी थे। उन्होंने जयपुर और दिल्ली में सूर्य-घटिका और वेधशालाएं बनवायी थी जो अब भी विद्यमान हैं। इस नगरके मुख्य बाजार काफी चौड़े हैं। मकानों और दुकानोंकी संरचना योजनानुसार हुई है। ये मकान और दुकानें गुलाबी रंगसे पुती हुई हैं। सब एक रंग और रूपके देखने में बड़े आकर्षक प्रतीत होते हैं । यहांके मुख्य रास्ते भी चौड़े हैं । यहाँका जौहरी बाजार ४० गज चौड़ा है। प्रत्येक चौपड़ काफी खुली हुई है । जब सर मिर्जा इस्माइलखाँ यहाँके प्रधानमन्त्री थे (स्वतन्त्रतासे पहले), उस समय इस नगरको अत्यधिक आकर्षक बनानेका प्रयत्न किया गया था।
इस नगरमें प्रारम्भसे हो जैनोंका प्राबल्य रहा है। यहाँके दीवान तथा अन्य उच्च सरकारी पदोंपर जैन रहते आये हैं। यह क्रम सन् १९४७ तक बराबर चलता रहा । इसीलिए कुछ लोग विनोदमें इसे जैनपुर भी कह देते थे। इससे पूर्व आमेर राजधानी थी।
जयपुर जैनोंका प्रसिद्ध केन्द्र रहा है। यहाँकी समाजमें धार्मिक रुचि सदासे रही है। अपने जमाने में यहाँको स्वाध्याय-गोष्ठी प्रसिद्ध थी और उसका सम्बन्ध आगरा तथा मुलतानकी स्वाध्याय गोष्ठियोंके साथ था। इन गोष्ठियोंमें चर्चा या स्वाध्यायके समय जो शंकाएँ उठती थीं और जिनका समाधान आपसमें नहीं हो पाता था, वे शंकाएँ दूसरी गोष्ठियोंके पास भेज दी जाती थीं। जिन दिनों जयपुर में आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी विराजमान थे, उन दिनों उनके पास मलतान आदिसे बराबर शंकाएं आती रहती थीं और वे उनका समाधान भेजा करते थे।