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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ श्री भुवनकोति देवास्तत्प? श्री ज्ञानभूषण देवास्तत्पट्टे श्री विजयकीर्ति देवास्तत्पट्टे सुमतिकीर्ति गुरूपदेशात् ( इसके पश्चात् प्रतिष्ठाकारकके परिवारके नाम दिये गये हैं ) नित्यं प्रणमंति ।
उपर्युक्त सभी भट्टारक बलात्कारगणकी ईडर शाखाके थे।
नसियाँ-झालावाड़ और झालरापाटनके मध्य सड़क किनारे नसियांजी है। इसमें बायीं ओरकी वेदीमें हलके लाल वर्णको पाश्र्वनाथ भगवानकी प्रतिमा विराजमान है। इसका आकार २ फोट ८ इंच है। यह प्रतिमा एक शिलाफलकमें है। प्रतिमाके ऊपर सप्त फणावलि सुशोभित है। परिकरमें छत्र, गज, मालाधारी देव और चमरेन्द्र हैं। मूर्तिके दोनों पार्यो में ७ पद्मासन तथा छत्रके ऊपर ८ खड्गासन प्रतिमाएं बनी हुई हैं। पद्मासन प्रतिमाओंके नीचे धरणेन्द्र और पद्मावती हैं। मूर्तिका प्रतिष्ठा-काल संवत् १२२६ ज्येष्ठ सुदी १० बुधवार है।
___ दायीं वेदी ३ दरकी है। वेदीके आगे चबूतरा बना हुआ है। यह पूजाके प्रयोजनके लिए है। मूलनायक भगवान् पाश्वनाथको १ फुट २ इंच अवगाहनाको और संवत् १५४५ में प्रतिष्ठित श्वेत वर्णकी पद्मासन प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त इस वेदीमें संवत् १६६५ और १६६९ की ७ मूर्तियां हैं।
नसियाँके चारों ओर विशाल कम्पाउण्ड और बरामदे बने हुए हैं। मन्दिरके बाहर तीन निषद्या या छतरियाँ बनी हुई हैं। उनमें से एकपर माघ सुदी ३ संवत् १०६६ अंकित है। उस दिन आचार्यश्री भावदेवके शिष्य श्रीमन्तदेवका निधन हुआ था। आचार्य महोदयका एक चित्र भी मिला है। वह अध्ययन मुद्राका है। सामने थूणीपर शास्त्र रखा हुआ है। दूसरी छतरीमें संवत् ११८० में आचार्य देवेन्द्रका उल्लेख है। एक छतरी कुमुदचन्द्राचार्यकी आम्नायके भट्टारक कुमारदेवकी है, जो संवत् १२८९ के मूलनक्षत्रमें गुरुवारको स्वर्गवासी हुए थे। सात-सलाकी पहाड़ीके स्तम्भका १००९ ई. का शिलालेख नेमिदेवाचार्य बलदेवाचार्यका उल्लेख करता है। इसी स्तम्भपर १२४२ ई. के शिलालेखमें मूलसंघ और देवसंघका उल्लेख है।।
छतरियोंके निकट एक पक्को बावड़ी बनी हुई है। बावड़ीके चारों ओर पक्के घाट और बरामदे हैं। स्थापनाका इतिहास
झालरापाटनके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती है कि यहां प्राचीन कालमें १०८ मन्दिर थे, जिनकी घण्टियाँ बजा करती थीं। अतः इस नगरका नाम झालरापाटन पड़ गया। झालरापाटनका अर्थ है घण्टियोंकी झालरोंका नगर। कुछ लोग इसका अर्थ करते हैं झालाका नगर । शान्तिनाथका मन्दिर इन्हीं १०८ मन्दिरोंमें-से था। इस नगरका प्राचीन नाम चन्द्रावती था और इसके बीच में-से चन्द्रभागा नदी बहती थी।
इस नगरकी स्थापनाके सम्बन्धमें अनेक प्रकारको किंवदन्तियाँ और लोकगीत प्रचलित हैं। एक लोकगीतमें इस नगरका संस्थापक राजा हूण बताया है। कुछ लोग मालवाके परमारनरेश चन्द्रसेनकी पुत्रीको इस नगरकी संस्थापिका मानते हैं, यात्रा करते हुए इस स्थानपर आकर जिसके पुत्र उत्पन्न हुआ था। कई लोग इस बारेमें एक बड़ी रोचक कहानी कहते हैं कि जस्सू नामक एक बढ़ई काम करके अपने घर जा रहा था। उसने रास्तेमें जैसे ही कुल्हाड़ी रखी, वह सोनेकी हो गयी। इस तरह उसे पारस पत्थर मिल गया। उसकी सहायतासे उसने एक नगरीका निर्माण किया, जिसका नाम चन्द्रावती रखा। एक तालाबका नाम तो अब तक 'जस्सू ओरका तालाब' कहलाता है। एक किंवदन्ती यह भी है कि वनवासके दिनोंमें पाण्डव यहाँ आये