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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ
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सामने की दीवालपर २ फीट ४ इंच ऊंचे फलकमें चतुर्भुजी अम्बिका बनी हुई है । दायें हाथों में एक अंकुश है तथा दूसरा वरद मुद्रामें है । बायें हाथोंमें एकमें कमल है तथा दूसरे हाथसे गोदमें पुत्रको लिये हुए है । यह देवी हाथोंमें कंकण, चूड़ियाँ; भुजाओंमें भुजबन्द; गलेमें मंगल सूत्र, हार और मौक्तिक माला; कानोंमें कुण्डल और सिरपर पगड़ीनुमा मुकुट धारण किये हुए हैं । इसके शीर्ष भागपर तीर्थंकर मूर्ति नहीं है ।
बायीं ओर गर्भगृहमें ८ फीट ४ इंच ऊँचे और ७ फीट ३ इंच चौड़े शिलाफलक में २ फीट ९ इंच ऊँची खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्ण है । इसके अतिरिक्त इस फलक में ५५ तीर्थंकरप्रतिमाएँ दोनों ध्यानासनोंमें बनी हुई हैं । इसके परिकरमें गज, माला लिये हुए देव, चमरेन्द्र, व्याल और दोनों ओर यक्ष-दम्पती हैं । इस मूर्तिका प्रतिष्ठा काल संवत् ११४६ पौष सुदी ६ चरण चौकीपर अंकित है । यह मूर्ति भगवान् महावीरकी कही जाती है । मूर्ति अत्यन्त कलापूर्ण और मनोज्ञ है ।
इस मन्दिरके मुख्य गर्भगृहमें वेदीपर मूलनायक भगवान् ऋषभदेवकी हलके लाल पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । प्रतिमाके वक्षपर श्रीवत्स है । हाथों और पैरोंपर पद्म बने हुए हैं। इसके पादपीठपर लेख उत्कीर्ण है जो ३ फोट १ इंच लम्बा है तथा जिसमें ८ पंक्तियाँ हैं। इस लेख के अनुसार संवत् १७४६ माघ सुदी ६ सोमवारको मूलसंघके भट्टारक जगत्कीर्ति द्वारा खीचीवाड़ा देशमें चांदखेड़ी में श्री किशोरसिंह के राज्य में बघेरवालवंशी भूपति और जौलादेके पुत्र संगही किशनदासने बिम्ब प्रतिष्ठा करायी ।
यह प्रतिमा ६ फीट ३ इंच ऊंची और ५ फीट ५ इंच चौड़ी है । भगवान् ऋषभदेवकी इस प्रतिमा के मुखपर शान्ति, विराग और करुणाकी निर्मल भाव प्रवणता झलकती है । प्रतिमाके दर्शन करते ही मनमें अपूर्व वीतरागता और शान्तिके भाव प्रस्फुटित हों उठते हैं ।
इस प्रतिमाका निर्माण-काल अज्ञात है । कुछ लोग इसका निर्माण-काल संवत् ५१२ मानते हैं किन्तु इसका आधार क्या है, यह ज्ञात नहीं हो सका । प्रतिमापर जो लेख अंकित है, वह तो भूगर्भ से उत्खनन द्वारा निकलनेपर प्रतिमाकी प्रतिष्ठाका काल है । वह प्रतिमाका निर्माणकाल नहीं है । प्रतिमा इस कालसे कहीं प्राचीन है । इस प्रतिमाके साथ ही बारहपाटीके भूगर्भसे उपर्युक्त भगवान् महावीरकी प्रतिमा भी प्रकट हुई थी । उसका प्रतिष्ठाकाल संवत् १९४६ है । विश्वास किया जाता है कि बारहपाटीमें एक या एकाधिक जैन मन्दिर थे । उनके भग्नावशेष अबतक वहाँ पहाड़ी पर बिखरे पड़े हैं । उन्हीं भग्नावशेषों में ऋषभदेव और महावीरकी उक्त दोनों प्रतिमाएँ निकली थीं । अतः आश्चयं नहीं कि दोनों समकालीन हों । यदि संवत् ५१२ वाली मान्यता के समर्थन में कोई प्रामाणिक और पुष्ट आधार मिल सके तो उसे स्वीकार करने में किसीको कोई आपत्ति नहीं होगी ।
इस वेदीपर एक पाषाण - फलकमें तीन तीर्थंकर - मूर्तियां एक दूसरेके ऊपर बनी हुई हैं । ऊपर शिखर बना हुआ है ।
एक अन्य शिलाफलक में, जो ६ फीट ५ इंच ऊंचा ओर ४ फीट चौड़ा है, मध्यमें भगवान् पार्श्वनाथ पद्मासन मुद्रामें आसीन हैं। उनके उभय पावोंमें दो खड्गासन प्रतिमाएँ हैं । इस प्रकार यह चतुर्विंशतिमूर्ति फलक है । इसके शीर्ष भाग में शिखर बना हुआ है ।
बायीं ओर एक फलकमें एक पद्मासन और उसके उभय पार्श्वोमें दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं। ऊपर शिखर बना है ।