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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ लिए कटलेके अतिरिक्त छह धर्मशालाएं बनीं। सड़कके दोनों ओर कटलेके दरवाजे तक दुकानें बन गयी हैं । क्षेत्रके आसपासको भूमिको समतल किया गया और वहाँके ग्रामवासियोंको योजनाबद्ध तरीकेसे बसाया गया। स्टेशनके सामने यात्रियोंकी सूविधाके लिए धर्मशाला बनायी गयी। पाकं. औषधालय, वाचनालय, स्कूल आदि सभी प्रकारको सुविधाएं जुटायी गयी हैं। इस प्रकार सभी आधुनिक सुविधाओंसे सुसज्जित शान्त व सुरम्य लघु नगरीय व भक्ति-स्थलका योजनाबद्ध विकास किया जा रहा है। इसके साथ ही दूसरा उल्लेखनीय कार्य है अनुसन्धानका । इस विभाग द्वारा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, तमिल आदि भाषाओंके प्राचीन साहित्यके अनुसन्धान तथा राजस्थानके मन्दिरोंके शास्त्र-भण्डारोंकी सूचियोंका प्रकाशन किया गया है। इतिहासके आलोकमें भगवान महावीरकी मँगा वर्णकी जो प्रतिमा एक टोलेसे निकली, वह यहीं किसी प्राचीन मन्दिर में विराजमान थी और किन्हीं कारणोंसे मन्दिर नष्ट होनेपर वह दब गयी थो अथवा किसी दूरस्थ मन्दिरमें थी और मुस्लिम कालमें नष्ट होनेके भयसे वह यहाँ लाकर छिपा दी गयी, ऐसे अनेक विकल्प मनमें उठते हैं किन्तु जिज्ञासाका समाधान हो सकने योग्य ठोस अथवा पुरातत्त्व सम्बन्धी प्रमाण अभी तक अप्राप्य हैं। इसलिए आधिकारिक रूपसे इस मूर्तिके सम्बन्धमें विस्तारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस मूर्तिकी शिल्पयोजना और रचना शैली गुप्तोत्तर कालकी प्रतीत होती है। मूर्ति ठोस ग्रेनाइटकी न होकर रवादार बलुए पाषाणको है। इसलिए वह काफी घिस चुकी है। यह पाषाण ग्रेनाइटके मुकाबले अल्पायु होता है फिर वर्षों तक यह क्षारवाली मिट्टोके नीचे दबी रही है इसलिए इसकी सुरक्षाकी ओर ध्यान देनेकी अत्यन्त आवश्यकता है। इस स्थानके दोनों ओर दो प्रसिद्धि सत्ता केन्द्र थे। एक ओर बयाना ( शान्तिपूर ) का विजय मन्दारगढ़ तथा दूसरी ओर ताहनगढ़। ताहनगढ़ बयानासे दक्षिण में १४ मील, हिन्डोनसे पूर्वमें १५ मील और करौलीसे २४ मोल था । श्रीमहावीरजीका इलाका इन दोनों प्रसिद्ध नगरोंके मध्य था और इधरसे उधर आने-जानेका यही मार्ग था। मुस्लिम सेनाओंका आवागमन इस मार्गपर सदा ही बना रहता था इसलिए इन दोनों नगरों और विख्यात दुर्गोपर घटनेवाली घटनाओंका इस स्थान और मूर्तिपर प्रभाव पड़ना अनिवार्य था। हमारा अनुमान है कि महावीर स्वामीको मूर्ति कालान्तरसे अथवा इन परिस्थितियोंमें टोलेमें दब गयी अथवा दबा दी गयी। क्षेत्र दर्शन श्री महावीरजी क्षेत्रको यात्राके लिए जानेवाले नरनारियोंने के मनमें एक अद्भुत स्फुरणा, उमंग और पुण्य भावना उत्पन्न होती है। वे जब स्टेशनसे चलते हैं तो दृष्टि मन्दिरकी ओर ही लगी रहती है । रात्रिके समय तो मन्दिरके उन्नत तीन शिखरोंकी रोशनी मीलों दूरसे ही दिखाई देने लगती है तथा दिनमें धर्म-ध्वजा फहराती हुई दिखाई देती है। देखते ही मनमें हर्षकी अद्भुत तरंगें उठने लगती हैं। क्षेत्रपर पहुंचते ही कटलेके विशाल उत्तरमुखी सिंह द्वारसे प्रवेश करते हैं। इसके ऊपर नगाड़खाना है। मध्य में मन्दिर है और उसके चारों ओर दो मंजिली धर्मशाला बनी हुई है। यही कटला कहलाता है । बायीं ओर साधारण ऊँचा चबूतरा है। यह मन्दिरके मुख्य द्वारके सामने बना हुआ है। इसके ऊपर मानस्तम्भ बना हुआ है। मन्दिरके मुख्य द्वार पर संगमरमरकी तीन क्षत्रियाँ सुशोभित हैं। सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुंचते हैं। दोनों ओर संगमरमरकी खुली छत है।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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