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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ वसवा ग्राम ( जयपुर )के निवासी दिगम्बर जैन खण्डेलवाल श्री अमरचन्दजी विलाला भी दर्शनार्थ आये। भगवान्के दर्शनोंसे उन्हें बड़ी शान्ति अनुभव हुई। उनकी भावना हुई कि जिनालय बनाकर भगवान्को विराजमान किया जाये। मन्दिरका निर्माण हुआ। भगवान्की इस मनोहारी प्रतिमाको उसमें विराजमान करनेका समय आया, पर मूर्ति अचल हो गयी। अपने स्थानसे नहीं हट सकी । तभी उस ग्वाले (चमार ) का सहयोग चाहा गया और प्रतिमा समारोहपूर्वक श्री मन्दिरमें लाकर विराजमान कर दी गयी।
अतिशयोंसे आकर्षित होकर अनेक व्यक्ति मनोकामनाएं लेकर आने लगे। उन व्यक्तियोंसे मनोकामना पूर्ण होनेके समाचार परिचित जनों तक पहुँचते रहे। इस प्रकार थोड़े ही कालमें चाँदनपुरवाले महावीरके अतिशयका यज्ञ-सौरभ चारों दिशाओंमें फैल गया। यात्रियोंकी संख्या निरन्तर बढ़ती गयी। यात्रियोंकी सुविधाके लिए धर्म-प्रेमी दिगम्बर जैन बन्धुओंने वहां धर्मशालाएँ बनवायीं और मन्दिरमें भी धीरे-धीरे परिवर्तन-परिवर्धन होते गये।
इस क्षेत्रका प्रादुर्भाव कौन-से संवत्में हुआ, यह अभी तक ठीक ज्ञात नहीं हो सका है परन्तु राजकीय रेकार्डसे जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार विक्रम संवत् १७७१ से पूर्व भी यह मन्दिर विद्यमान था। इसकी सेवा-पूजार्थ राज्यसे नकद सहायता मिलती थी। संवत् १८३९ में जयपुर राज्यके तत्कालीन नरेशोंने तो एक गांव ही श्री जीको भेंट कर दिया था। इन तथ्योंके आधारपर अनुमानतः क्षेत्रका प्रादुर्भाव व मन्दिरका निर्माण विक्रम की १६वीं-१७वीं शताब्दीमें हुआ होगा।
यह स्थान आमेर गद्दीके मूलसंघ आम्नायके दिगम्बर जैन भट्टारकोंका केन्द्र रहा है। इन दि. जैन भट्टारकोंका तत्कालीन बादशाहों व राजाओंपर पर्याप्त प्रभाव था और उससे प्रभावित होकर ही इन भट्टारकोंको उस समयके सम्मानके प्रतीक चवर, मोरछल आदि ताजीमें दी गयी थी। इस क्षेत्रका प्रबन्ध प्रारम्भसे ही जयपुरके दिगम्बर जैन समाज, उनकी पंचायतों व भट्टारकों द्वारा होता रहा है। इन भट्टारकोंकी नियुक्ति जयपुरकी जैन पंचायतें करती थीं।
सन् १९१८ में भट्टारक महेन्द्र-कीर्तिजीके निधनके पश्चात् जयपुर की दिगम्बर जैन पंचायतोंने पूर्व प्रथानुसार भट्रारक चन्द्रकीर्तिजीको नियुक्ति की। सन् १९२३ में जब गाँवके जमींदारोंने हाँसिल देनेमें आनाकानी की तो जयपुर दिगम्बर जैन पंचोंकी प्रार्थनापर तत्कालीन राज्यके कोर्ट ऑफ बार्ड स विभाग द्वारा यहाँका प्रबन्ध किया गया और पंचायत की तरफसे भी एक मोतमिद बराबर मुकर्रर रहा । सन् १९३० में जयपुरकी दिगम्बर पंचायतने एक रुक्का पेश किया कि कोर्ट ऑफ बाड्सका इन्तजाम हटा लिया जावे । जयपुर राज्य सरकार (महकमा खास) ने यह तजबीज किया कि पहले सरावगी पंचोंके रुक्केपर ही कोर्ट ऑफ़ बासका प्रबन्ध किया गया था, अब पंच इस प्रबन्धको रखना नहीं चाहते हैं अतः कोर्ट ऑफ बाड्सका प्रबन्ध हटा लिया जावे और चार्ज पंचोंको संभला दिया जावे। तब से यह कमेटी क्षेत्रका वाकायदा प्रबन्ध कर रही है। राजस्थान सार्वजनीन प्रन्यास अधिनियमके अन्तर्गत इसका नियमानुसार १९६६ में रजिस्ट्रेशन करा लिया गया है।
_इस क्षेत्रपर जो कुछ वैभव दीख पड़ता है, वह सारे भारतके दिगम्बर जैन बन्धुओंकी श्रद्धाका फल है। प्रबन्धकारिणी कमेटोके कार्यकालमें क्षेत्रका बहुत विकास हुआ है। क्षेत्रपर जलकी व्यवस्थाके लिए इंजिन फिट हआ। पाइप लाइन पड़ी, एक लाख गैलनकी क्षमतावाली दो टंकी बनी, प्रकाशके लिए शक्तिशाली जनरेटर लगाकर बिजलीके खम्भे और तार डाले गये । स्टेशनसे क्षेत्र तक पक्की सड़क बनवायी गयी। स्टेशनको आधुनिक सुविधाओंसे सम्पन्न करवाया गया। नदीपर पुल बना जिससे बारहों महीने यात्राको सुविधा हो गयी। यात्रियोंके ठहरनेके