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________________ २० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिरोंसे लगभग ३ मील दूर धरातलसे १००० फीट ऊपर अभी एक प्राकृतिक गुफा बनी हुई है, जिसका रहस्य आज तक अनावृत बना हुआ है। इसे देखते हुए यह सम्भावना की जा सकती है कि इन गुहामन्दिरोंकी गुफाओंमें सब नहीं तो कुछ अवश्य प्राकृतिक होंगी। यही बात गजपन्थकी गुफाओंके लिए भी कही जा सकती है। ___इन गुफाओंमें आकार, विशालता और सुघड़ताकी दृष्टिसे धाराशिव और ऐलौराकी गुफाएँ सबसे बाजी मार ले जाती हैं । कलाको दृष्टिसे ऐलौराकी इन्द्रसभा गुफा, जगन्नाथ गुफा और छोटा कैलाश गफाएँ बेजोड हैं। इनके स्तम्भ अलंकृत हैं। कई स्तम्भों पर तीर्थंकरों और साधुओंकी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। कई स्तम्भोंपर सरस लोकजीवनका अंकन किया गया है। कहीं कोई मुग्धा त्रिभंग मुद्रामें खड़ी हुई है; कहीं संगीत-समाज जुटा हुआ है, नर्तकी चपल गतिसे नृत्य कर रही है, कोई वाद्य और संगीतमें मग्न है। कहीं कोई सुरसुन्दरी अकेली ही नृत्यमें लीन है। इन दृश्योंमें अल्हड़ यौवन छलकता दिखाई पड़ता है। शिल्पोने उनके सौन्दर्य और योवनको संवारनेमें अपनी कलाका, अपने नैपुण्य और कल्पनाका पूरा उपयोग किया है। ऐलौरा और मांगीतुंगीको गुफाओंमें कला और आकार-प्रकारमें तो कोई समानता नहीं है किन्तु एक बातमें समानता अवश्य है। दोनों ही स्थानोंपर तीर्थंकर और शासन-देवताओंकी मूर्तियोंके साथ साधु-मूर्तियोंका अंकन किया गया है। बल्कि इस दृष्टिसे मांगीतुंगीकी गुफाएँ अत्यधिक समृद्ध हैं। यहां साधु-मूर्तियोंको संख्या सैकड़ों है, जबकि ऐलौरामें शासन-देवताओंकी मूर्तियां अधिक हैं । अन्य स्थानोंको गुफाओं में केवल तीर्थंकर-मूर्तियां ही हैं, उनमें शासन-देवताओंकी मूर्तियाँ बहुत कम हैं। धाराशिव और ऐलौराकी गुफाएं लगभग समकालीन मानी जाती हैं। धाराशिवमें स्तम्भों आदिमें कोई अलंकरण नहीं है, मूर्तियोंको संख्या भी अल्प है, वहाँ मूर्तियां भी मुख्यतः पार्श्वनाथकी हैं। किन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि धाराशिवको मूर्तियां ऐलोराकी मूर्तियों की अपेक्षा अधिक सजीव, भव्य और सुडौल हैं। धाराशिवकी सभी पार्श्वनाथ मूर्तियाँ अर्धपद्मासनमें स्थित हैं, आकार-प्रकारमें विशाल हैं, उनके अंग-प्रत्यंगमें अधिक सुघड़ता है और उनकी भावाभिव्यंजना अधिक प्रभावक है । धाराशिवकी गुफाओंके निर्माणका मुख्य उद्देश्य पूजा और साधुओंके ध्यानके लिए एकान्त सुविधापूर्ण स्थान निर्मित करना था, जबकि ऐलौराकी गुफाओंका निर्माण कलायतनोंके रूपमें किया गया था। इस दृष्टिसे दोनों ही स्थान अपने उद्देश्योंमें सफल रहे हैं। अभिलेख अभिलेखोंके अनेक प्रकार हैं--शिलालेख, ताम्रपत्र, मूर्ति-लेख। इन प्रान्तोंमें कुण्डलको छोड़कर कहीं ताम्रलेख उपलब्ध नहीं हुए। कुण्डलमें दसलाढ़ नामक एक व्यक्तिको घरमें तीन ताम्रपट प्राप्त हुए थे। प्रथम ताम्रपट राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय द्वारा दिये दानसे सम्बन्धित है । द्वितीय ताम्रपट पुलकेशी पणतु विजयादित्यके दानपत्रके सम्बन्धमें है तथा तृतीय दानपत्र शक संवत् १२१० में कदम्बवंशी मयूरवर्मा द्वारा जैनाचार्य श्रीपालके शिष्य गुणपालको जैन मन्दिरके लिए दिये गये एक ग्रामके दानके सम्बन्धमें है। ये ताम्रपट ऐतिहासिक दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ____मूर्ति-लेख तो प्रायः सभी क्षेत्रोंपर मिलते हैं। प्राचीन मूर्तियोंपर प्रायः लेख नहीं मिलते। कुछ अतिशय क्षेत्रोंपर ऐसी मूलनायक और अतिशयसम्पन्न प्रतिमाएँ हैं जिनपर कोई लेख नहीं
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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