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जैन दृष्टि से राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र हैं । अतः उन्हें भक्त लोग चतुर्थकालीन अर्थात् ईसा पूर्व छठी-सातवीं या उससे पूर्वको मानते हैं। यद्यपि यह मान्यता केवल उनकी अतिशय भक्तिका प्रमाण है। पुरातत्त्ववेत्ता मूर्तियोंका कालनिर्धारण मूर्तियोंके पाषाण और उनकी रचना-शैलीके आधारपर करते हैं और वही प्रामाणिक माना जाता है । जैसे केशोरायपाटन, पैठण, धाराशिव, घोघा आदि स्थानोंपर कई मूर्तियोंको भक्तजन चतुर्थकालीन मानते हैं किन्तु पुरातत्त्ववेत्ता इसे स्वीकार नहीं करते। मूर्ति-लेखोंमें इन प्रान्तोंमें सर्वाधिक प्राचीन लेख केशोरायपाटनकी एक मूर्तिपर अंकित है। वह है संवत् ६६४ । इससे प्राचीन कोई मूर्ति-लेख इन प्रान्तोंमें उपलब्ध नहीं हुआ। इसके पश्चात् मुक्तागिरिका मन्दिर नं.७ का संवत ९०४ और कुण्डलका संवत् ९६४ का मूर्ति-लेख है। किन्तु इन मूर्ति-लेखोंसे यह नहीं समझा जा सकता कि इनसे प्राचीन मूर्तियाँ इन प्रान्तोंमें नहीं हैं।
इन प्रान्तोंमें शिलालेखोंकी संख्या अधिक नहीं है। इनमें बिजौलिया और कोल्हापुरके शिलालेख सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । बिजौलियामें कई शिलालेख हैं। एक लेख १९ फोट ३ इंच लम्बी और ५ फीट ४ इंच चौड़ी शिलापर है। इसमें कुल ४२ पंक्तियां हैं। यह चपटी चट्टान पहाड़की जमीनके तलपर प्राकृतिक उभरी हुई है। इसी प्रकारकी एक शिला है जो १० फोट ६ इंच लम्बी और ३ फीट ६ इंच चौड़ी है। इसमें ३० पंक्तियाँ हैं। उसपर लेख उत्कीर्ण हैं। यहीं एक अनगढ़ ३ फीट ८ इंच चौड़ी और १ फोट ३ इंच ऊंची शिला-जिसे पत्थरका ठोक कहना चाहिए-पर १० पंक्तियोंका लेख उत्कीर्ण है। इस क्षेत्रके मन्दिरमें दो चैत्यस्तम्भ बने हुए हैं। इनमें से एक ५ फीट ६ इंच और दूसरा ७ फीट ६ इंच ऊंचा है। इन दोनोंपर क्रमशः २४ और ४० पंक्तियोंके लेख हैं । मन्दिरकी दीवाल और फर्शपर भी लघुलेख उत्कीर्ण हैं। बड़ी शिलापर संवत् १२२६ में इस मन्दिरके निर्माता श्रेष्ठी लोलार्कने चाहमाननरेश सोमेश्वरके राज्यकालमें मन्दिरके निर्माण और उसकी प्रतिष्ठाके सम्बन्धमें एक लेख उत्कीर्ण कराया था। दूसरी शिलापर 'उन्नत शिखर पुराण' नामक काव्यग्रन्थ उत्कीर्ण है। चैत्यस्तम्भोंपर संवत् १४६५ और १४८३ के लेख अंकित हैं।
कोल्हापुर में पार्श्वनाथ मानस्तम्भ दिगम्बर जैन मन्दिर गंगावेशमें दो शिलालेख रखे हुए हैं। इनमें से एक ३ फीट ६ इंच ऊँची और २ फीट ५ इंच चौड़ी पाषाण शिलापर उत्कीर्ण है। इसमें ३१ पंक्तियाँ हैं। दूसरा शिलालेख ३ फीट १ इंच लम्बे-चौड़े पाषाण-फलकपर उत्कीर्ण है। इनमें शक संवत् १०६५ और १०७३ में शिलाहारनरेशों द्वारा जैन मन्दिरोंको दिये गये दानका उल्लेख है।
चांदखेडीमें एक स्तम्भपर संवत् १७४६ का लेख उत्कीर्ण है।
इनके अतिरिक्त वार्शीटाकलीके हेमाड़पन्थी जैन मन्दिरमें ११वीं शताब्दीका एक शिलालेख है। राजनापुरमें संवत् ११४० का एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है । अंजनेरीके एक जैन मन्दिरमें १२वीं शताब्दीका शिलालेख है।