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________________ . १८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ और ऐलोरा गुफाओंमें ही मिलती हैं, जिनका काल ईसाकी ७-८वों शताब्दी है। अन्य स्थानोंकी मूर्तियाँ इसके बादकी हैं। जिनायतन इन प्रान्तोंमें प्राचीन जिनालय अत्यल्प हैं। अधिकांशतः प्राचीन कालके जिनालय नष्ट हो गये या धर्मोन्मादने नष्ट कर दिये। फिर भी जो बचे हए हैं, उनका जीर्णोद्धार किया जा चुका है। ऐसे जिनालयोंकी संख्या तो उँगलियोंपर गिनी जा सकती है जो अपने मूलरूपमें अबतक सुरक्षित हैं। केशोरायपाटनका शिखर अबतक सुरक्षित खडा है. यद्यपि इसके आधे भागका जीर्णोद्धार किया जा चुका है। किन्तु जितना अपने मूलरूपको सुरक्षित रख सका है उसका काल ईसाकी ७-८वीं शताब्दी है और यह सम्भवतः इन तीनों प्रदेशोंमें सर्वाधिक प्राचीन है। पावागढ़में पर्वतपर कुछ जिनालय भस्मावशेष रूपमें बिखरे पड़े हैं किन्तु एक अब भी उपेक्षित और भग्नप्राय दशामें तालाबके तटपर खड़ा हआ है। उसकी जंघाओं, शुकनासिका, आमलक और शिखरपर शासन-देवताओं और तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसकी समानता काल और कलाको दृष्टिसे मध्यप्रदेशके ऊन, ग्यारसपुर, मालादे और बज्रमठके प्राचीन जिनालयोंसे की जा सकती है। तारंगाका जैन मन्दिर भी चालुक्य कालका प्रतीत होता है। उसकी भी शुकनासिका और शिखरपर नानाविध मतियाँ उत्कीर्ण हैं और छोटा होते हुए भी सम्राट कुमारपाल द्वारा निर्मित श्वेताम्बर जिनालयके साथ कलामें होड़ करता प्रतीत होता है। विजौलियाका पार्श्वनाथ मन्दिर शिलालेखके अनुसार १२वीं शताब्दीका है और ८०० वर्षों के काल और धर्मोन्मादके क्रूर प्रहारोंके मध्य अभी तक सुरक्षित है। घोघाके जिनालय भी सम्भवतः१२-१३वीं शताब्दीके हैं। चित्तौडगढ और आबूके जैनमन्दिर इसके कुछ बादके हैं। अंजनेरीमें एक जैन मन्दिर किसी प्रकार अपनी जीणं दशामें अबतक खड़ा हआ है। इसमें १२वीं शताब्दीका एक शिलालेख भी है। कोल्हापुरका पार्श्वनाथ मानस्तम्भ जैन मन्दिर गंगावैश लगभग १००० वर्ष प्राचीन है। इसमें शक संवत् १०६५ का एक शिलालेख भी है। नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर मंगलवार पेठका निर्माण महालक्ष्मी मन्दिरके समकालीन है। यह भी कहा जाता है कि भगवज्जिन सेनाचार्यने षटखण्डागमके लेखनकी समाप्ति इसी मन्दिरमें बैठकर की थी। षट्खण्डागमकी समाप्ति शक संवत् ७५९ ( ई. सन् ८३७) में हुई थी। यदि यह सिद्ध हो जाता है कि षट्खण्डागमका अन्तिम भाग उक्त मन्दिरमें लिखकर ग्रन्थ सम्पूर्ण किया गया तो इस मन्दिरका काल ईसाकी नौवीं शताब्दी सुनिश्चित हो जाता है। तेरके मन्दिरमें कोई शिलालेख या अन्य ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, जिससे मन्दिरके निर्माण-कालपर प्रकाश पड सके। किन्त इसमें सन्देह नहीं है कि यह कमसे कम १०वीं शताब या उससे कुछ पूर्वका ही होना चाहिए। जिन्तुरका नगर मन्दिर और सिरपुरके दोनों मन्दिर भी १०वीं शताब्दीके हैं, यद्यपि सिरपुरके मन्दिरोंमें जीर्णोद्धार हो चुका है। वार्शीटाकलीमें एक हेमाड़पन्थी मन्दिर है। इसमें ११वीं शताब्दीका एक शिलालेख भी है। मन्दिरमें भगवान् महावीरके जीवन सम्बन्धी घटनाएँ अंकित हैं। इस मन्दिरको बाह्य भित्तिपर डेढ़ फुट ऊंची खगासन जैन मूति उत्कीर्ण है। यह मन्दिर अब भग्नावशेषरूपमें खड़ा है। जिनालयोंकी एक विधा तलप्रकोष्ठ या भोयरा भी है। दहीगाँव, पैठण, औरंगाबाद, जिन्तूर, सिरपुर ( अन्तरिक्ष पाश्वनाथ ), कारंजा, मुक्तागिरि, केशोरायपाटन, चाँदखेड़ी, महुआ, अंकलेश्वर और सजोदमें तलप्रकोष्ठ बने हुए हैं, जहां तीर्थंकर-मूर्तियाँ विराजमान हैं। नन्दीश्वर जिनालय भी जिनायतनका एक रूप हैं। कई स्थानोंपर इनकी रचनाएँ की गयी हैं, जैसे बाहुबली, अजमेर, श्रीमहावीरजी। यहाँ नन्दीश्वर द्वीपके ५२ जिनालय लघु रूपमें बनाये
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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