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________________ १४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ जंघाओं पर रखकर उनके ऊपर दोनों हाथोंको ऊपर-नीचे रखे अर्थात् बायें हाथकी हथेलीपर दायें हाथकी हथेली रखे, ताकि हाथके दोनों अंगूठे दोनों टखनोंके ऊपर आ जायें। पेट, छातीको रोमावली और नासिका एक सीधमें रहें । न अधिक अकड़कर और न अधिक झुककर बैठे। इसे सुखासन या पद्मासन कहते हैं । यह योगमुद्रा कहलाती है। इसी प्रकार बायीं जंघाके ऊपर दायें पैरको रखकर पूर्ववत् दोनों हथेलियोंको एक दूसरेके ऊपर रखकर नासाग्र अर्धोन्मीलित दृष्टि रखना अर्धपद्मासन कहलाता है। यह भी योगमुद्रा कहलाती है। इन प्रान्तोंमें जितनी तीर्थंकर-मूर्तियाँ मिलती हैं, वे सभी इन्हीं तीन आसनों और दो मुद्राओंमें मिलती हैं । किन्तु खड्गासनकी अपेक्षा पद्मासन मूर्तियोंकी संख्या अत्यधिक है। जिस प्रकार मध्यप्रदेशके अतिशय क्षेत्रोंपर खड्गासन मूर्तियोंकी संख्या अधिक रही है, उसी प्रकार इस प्रान्तके तीर्थोपर पद्मासन प्रतिमाओंका अधिक प्रचलन रहा है । अर्धपद्मासन प्रतिमाएं धाराशिव, ऐलोरा, जिन्तुर और अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ (सिरपूर) में प्राप्त होती हैं। खड़गासन मूर्तियोंमें बोरिवली (बम्बई) में इन तीनों प्रान्तोंमें सर्वाधिक अवगाहनावाली प्रतिमा भगवान् आदिनाथको है जो ३१ फोटकी है। इसके अतिरिक्त यहींपर भरत और बाहुबलीकी २९-२९ फोट, कोल्हापुरमें आदिनाथकी २८ फोट, श्रीमहावीरजीमें शान्तिनाथकी २३ फोट, बाहुबलीमें बाहुबली स्वामीकी २८ फीट, कुन्थलगिरिमें बाहुबलीको १८ फोट, झालरापाटनमें शान्तिनाथकी १२ फोट, ऐलोरामें पार्श्वनाथ और बाहुबलीको कई मूर्तियां १२ फोट उत्तुंग हैं। पद्मासन मूर्तियोंमें सबसे बड़ी अवगाहनावाली मूर्ति भगवान् पार्श्वनाथको है जो १६ फीट ऊँची है। यह मूर्ति ऐलौरा पर्वतके ऊपर पार्श्वनाथ मन्दिरमें विराजमान है। इन प्रदेशोंमें तीर्थंकर-मूर्तियोंमें वैविध्यके दर्शन होते हैं। यहाँ त्रिमूर्तिका ( जिन्हें महाराष्ट्रमें रत्नत्रय मूर्ति कहने का प्रचलन है ), सर्वतोभद्रिका, चैत्य, चौबीसो पट्ट अनेक स्थानोंमें मिलते हैं। मूर्तियोंमें आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, नेमिनाथ, पाश्वनाथ और महावीरकी प्रतिमाओंकी संख्या सर्वाधिक है । आदिनाथकी जटायुक्त प्रतिमाएं कई स्थानोंपर मिलती हैं, किन्तु अन्य कई तीर्थंकरोंकी भी जटायुक्त प्रतिमाएं मिली हैं। पार्श्वनाथकी सात, नौ, ग्यारह, तेरह और सहस्रफणावलियुक्त प्रतिमाएँ भी हैं। ऐलौरामें सम्बरदेवकृत उपसर्गवाली और केवलज्ञान प्राप्तिके पश्चात् देवदेवियों द्वारा मोद प्रकट करनेवाली प्रतिमाएँ भी कई विद्यमान हैं। यहाँ पार्श्वनाथ- प्रतिमाओंके अनेक नाम रख लिये गये हैं; जैसे विघ्नहर पाश्र्वनाथ, विघ्नेश्वर पार्श्वनाथ, अन्देश्वर पार्श्वनाथ, चंवलेश्वर पाश्वनाथ, नागफणी पार्श्वनाथ, कलिकुण्ड पाश्वनाथ, झरी पार्श्वनाथ, गिरी पार्श्वनाथ, अमीझरो पार्श्वनाथ, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ आदि। भातकुलोमें आदिनाथ मूर्तिमें अद्भुत विशेषता दिखाई पड़ती है। इस मूर्तिके हाथ और पैरोंकी अंगुलियाँ परस्पर संश्लिष्ट न होकर मनुष्योंके समान पृथक्-पृथक् हैं तथा इसके नाखून बढ़े हुए हैं । जिन्तूरमें एक मन्दिर में पार्श्वनाथकी एक मूर्ति ऐसी है, जिसके ऊपर बाहुबलीके समान लताएं चढ़ी हुई हैं और उनके सिरके ऊपर सर्पफणावली है। यह मति भगवानको ध्यानावस्थाको प्रकट करती है। सिरपूरकी पार्श्वनाथ मूर्ति तो निश्चय ही अद्भुत है क्योंकि वह ३ फीट ८ इंच ऊँची और २ फीट ८ इंच चौड़ी होने और भारी सप्त फणावली युक्त होनेपर निराधार (एक कोणपर किंचित् आधार पाकर ) अन्तरिक्षमें भूमिसे २-३ अंगुल ऊपर ठहरी हुई है। इसी प्रकार जिन्तूरमें पार्श्वनाथकी ५ फीट १० इंच ऊँची और ४ फीट ५ इंच चौड़ी नौ फणवाली एक भारी मूर्ति केवल २-३ इंच चौड़े चौकोर पाषाण-खण्डपर टिकी हुई है। कई प्रतिमाएं ऐसी भी बतायो जाती हैं जो बालू और गारेकी बनी हुई हैं; जैसे
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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