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________________ जैन दृष्टि से राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र जैन कला एवं पुरातत्त्व राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्रमें जैनकला और पुरातत्त्वकी विपुल सामग्री है। इन प्रान्तोंमें भी अपेक्षाकृत पुरातन सामग्रीका परिमाण विशाल है। यह सामग्री पर्वतों और नगरोंमें या उनके पास फैली हुई है। इसका मूल्यांकन सावधि काल-क्रम और जैन शिल्पकी विविध विधाओंके परिप्रेक्ष्यमें किया जा सकता है। ऐतिहासिक दृष्टि से हम प्राग्गुप्त काल, मध्यकाल और उत्तरकालके रूपमें काल-विभाजन कर सकते हैं। प्राग्गुप्तकालमें गुप्तकालसे पूर्ववर्ती काल लिया गया है। मध्यकालसे ईसाको सातवोंसे बारहवीं शताब्दी तकका काल अभिप्रेत है। और उत्तरकालमें बारहवीं शताब्दीका पश्चाद्वर्तीकाल लिया गया है। इसी प्रकार सुविधाके लिए जैन शिल्पकी विभिन्न विधाओंको हम पाँच भागोंमें विभाजित कर सकते हैं-(१) तीर्थंकर मूर्तियाँ, (२) शासन देवताओंकी मूर्तियां, (३) देवायतन, (४) गुहामन्दिर और (५) अभिलेख। तीर्थंकर-मूर्तियाँ-इन प्रान्तोंमें तीर्थंकर-मूर्तियां तीन आसनोंमें मिलती हैं-खड्गासन, पद्मासन और अर्धपद्मासन । दोनों पैरोंका चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओंको नीचे लटकाकर नासिकान अर्धोन्मीलित दृष्टि रखकर खड़े होना खड्गासन कहलाता है। इसे कायोत्सर्गासन भी कहते हैं । यह जिन मुद्रा कहलाती है। प्रचलित मान्यतानुसार दोनों पांवोंके टखने ऊपरकी ओर करके अर्थात् दोनों पाँवोंको १. प्रभाचन्द्रकृत क्रियाकलाप। २. गुल्फोत्तान-कराङ्गष्ठरेखारोमालिनासिकाः । समदृष्टिः समाः कुर्यान्नातिस्तब्धो न वामनः ॥ बोधपाहुड़ टीका, ५१ । किन्तु प्रभाचन्द्रकृत क्रियाकलाप और आशाधरकुत अनगारधर्मामृत (अध्याय ८) में इन आसनोंका रूप भिन्न प्रकारसे दिया है। इनके अनुसार दोनों जंवाओंसे दोनों पैरोंके संश्लेषको पद्मासन कहते हैं । अर्थात दायें गोडके नीचे बायें पैरको रखना और बाँयें गोडके नीचे दाहिने पैरको रखना । बायें गोडके ऊपर दाहिने गोड़को रखना पर्यकासन है। दोनों ऊरुओं (जाँघों) के ऊपर दोनों पैरोंको रखना वीरासन कहलाता है । सम्बन्धित सन्दर्भ इस भाँति है 'पद्मासनं श्रितौ पादौ जङ्घायामुत्तराधरे । ते पर्यकासनं न्यस्तावूर्वोर्वीरासनं क्रमौ ॥प्रभाचन्द्र, क्रियाकलाप जङ्घाया जङ्घयाश्लिष्टे मध्यभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासनं सुखाधायि सुसाध्यं सकलैर्जनैः ॥ बुधैरुपर्यधोभागे जङ्गयोरुभयोरपि । समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यङ्कासनमासनम् ।। ऊर्वोरुपरि निक्षेपे पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं धीरैर्न कातरैः ॥ जङ्घाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जङ्घया । पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणः ॥ स्याज्जङ्घयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यको नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः ॥ वामोद्धिदक्षिणोरूज़ वामोरुपरि दक्षिणः । क्रियते यत्र तद्धीरोचितं वीरासनं स्मृतम् ॥ अनगार धर्मामृत ८१७९-८३ ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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