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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ खड़े हुए जैन मन्दिरका मानस्तम्भ रूप है। इसलिए इस परिसरमें फैले हुए समूचे परिवेशमें इसका मूल्यांकन करना होगा। कहना होगा, यह विकसित स्थापत्य और शिल्प कलाका प्रतिनिधित्व करनेवाला सर्वोत्कृष्ट निदर्शन है। इन प्रान्तोंमें अनेक स्थानोंपर गुहा-मन्दिर और गुफाएं हैं। पर्वतोंको तोड़कर छाती चीरकर बनायी गयी इन गुफाओं और उनमें उत्कीर्ण विविध मूर्तियोंमें कलाकारोंने अपनी सम्पूर्ण योग्यतासे कलाको उजागर किया है। ऐसे स्थानों में धाराशिव, ऐलौरा, औरंगाबाद, चाँदबड़, अंजनेरीको सम्मिलित किया जा सकता है। इन सभी स्थानों पर गुहा-मन्दिर बने हुए हैं और सभी किसी न किसी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । काल-क्रमकी दृष्टिसे धाराशिवकी गुफाएं इनमें सर्वाधिक प्राचीन प्रतीत होती हैं। वर्तमान पुरातात्विक मान्यतानुसार इनका निर्माण-काल ईसाकी ७-८वीं शताब्दी है। सम्भवतः ऐलौराकी जैन गुफाएँ इनके कुछ काल पश्चात्की हैं, किन्तु वे अपनी मक संरचनाके कारण विश्वकी कलाकृतियों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर चकी हैं। शेष जैन कलातीर्थ सम्भवतः इनके पश्चात्कालीन हैं और ऐलौराके समान कलाके समुन्नत रूपका प्रतिनिधित्व नहीं कर सके हैं। किन्तु यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इन कलातीर्थोंकी भी अपनी-अपनी पृथक् विशेषताएं हैं। भट्टारक-पोठ-स्थान इन प्रदेशोंमें निम्नलिखित स्थानोंपर भट्टारक-पीठ या उनके शाखा-पीठ थे नागौर, श्रीमहावीरजी, ऋषभदेव, अजमेर, जयपुर, भानपुर, ईडर, सूरत, अंकलेश्वर, सोजित्रा, कोल्हापुर, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ सिरपुर और कारंजा। ___ इन स्थानोंमें-से अब केवल ऋषभदेव और कोल्हापुर में ही भट्टारक-पीठ हैं, यहाँ भट्रारक रहते हैं। शेष स्थानोंपर वर्तमानमें कोई भट्टारक नहीं हैं। नागौरमें भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति और श्रीमहावीरजीमें भट्टारक चन्द्रभूषण अन्तिम भट्टारक हुए, जिनका स्वर्गवास कुछ वर्षों पूर्व हुआ था और उनके पीठपर फिर कोई भट्टारक नहीं बना। इनमें कुछ स्थानोंपर पहले एकाधिक भट्टारक रहा करते थे। जैसे ऋषभदेवके केशरियानाथ मन्दिरमें काष्ठासंघ और मूलसंघके भट्टारकोंके पीठ बने हुए हैं। इन पीठोंपर दोनों परम्पराओंके भट्टारक रहते और उपदेश दिया करते थे। अंकलेश्वरमें महावीर मन्दिर और आदिनाथ मन्दिर काष्ठासंघके हैं, चिन्तामणि पाश्वनाथ मन्दिर मूल संघका है और नेमिनाथ मन्दिर नवग्रह संघका है। इन संघोंके भट्टारक कभी-कभी यहाँ आकर ठहरते थे। कोल्हापुरमें लक्ष्मीसेन और जिनसेन इन दो भट्टारकोंकी गद्दियां और मठ हैं। दोनों पीठोंके भट्टारक यहाँ रहते हैं। भट्टारक लक्ष्मीसेनका एक उपपीठ रायबागमें और भट्टारक जिनसेनका एक उपपीठ नांदणीमें हैं। दोनों भट्टारक कभी-कभी अपने उपपीठोंपर भी जाकर रहते हैं। अन्तरिक्ष पार्श्वनाथमें देवेन्द्रकीर्ति स्वामी कारंजा, भट्टारक वीरसेन और भट्रारक विशालकीतिके पीठ अब भी बने हुए हैं। पहले यहाँ भट्टारक रहा करते थे। इनमें देवेन्द्रकीर्ति मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके भट्टारक थे । ये कारंजाके बलात्कारगण मन्दिरमें पीठाधीश्वर थे । इनका स्वर्गवास शिरडशहापुरमें हुआ था। इनके बाद इस पीठपर कोई भट्टारक नहीं बना। भट्टारक वीरसेन सेनगणके भट्टारक थे। उनका भट्टारक-पीठ कारंजाके सेनगण मन्दिरमें था। संवत् १९९५में आपका स्वर्गवास हो गया। आप हो इस पीठके अन्तिम भट्टारक थे।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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