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जैन दृष्टिसे राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र 'भगवती आराधना' में भी गजपन्थको नासिकके निकट माना है। वर्तमान गजपन्थ क्षेत्र भो नासिकके निकट, नासिकसे ६ कि. मी. है।
इन प्रमाणोंसे गजपन्थ क्षेत्रकी वर्तमान स्थिति असन्दिग्ध बन जाती है।
अतिशय क्षेत्र
उक्त तीनों प्रान्तोंमें अतिशय क्षेत्रोंकी संख्या पर्याप्त है । इन क्षेत्रोंके सम्बन्धमें किंवदन्तियाँ अत्यन्त रोचक हैं। कुछ किंवदन्तियां तो एकाधिक क्षेत्रोंके बारेमें मिलती-जुलती हैं । यथा किसी टोलेपर गायका दूध झरना और वहाँसे उत्खननमें मूर्ति प्रकट होना-जैसे श्री महावीरजी, भातकुली। बावड़ीमें अपनी आवश्यकताके बर्तनोंकी सूची लिखकर कागज डालना और बावड़ीमें बर्तन आ जाना। यथा मदनपुर ( उत्तर प्रदेश) और तेर। सरकण्डेकी गाड़ीपर भगवान्की विशाल मूर्ति ले जाना और पीछे मुड़कर देखनेपर मूर्तिका वहीं अचल हो जाना, जैसे चाँदखेड़ी, नागफणी पार्श्वनाथ और अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ।
किंवदन्तियोंकी यह समानता सम्भवतः संयोगवश है। इन क्षेत्रोंके चमत्कारोंमें भी समानता है, जैसे मनौती पूरी हो जाना, मन्दिरसे रात्रिको नृत्य-गानकी ध्वनि आना, सिंह आदि हिंस्र जीवोंसे भरे जंगलमें रात्रिमें पशुके अकेले रह जानेपर मनौती द्वारा प्रातः सकुशल वापस लौट आना। ऐसे अद्भुत चमत्कारोंके कारण ही ये स्थान अतिशय क्षेत्र कहलाते हैं। भातकुली क्षेत्रपर तो और भी विस्मयकारक चमत्कार देखा-सूना जाता है। कहते हैं कि भगवान्के अभिषेकके लिए जो दूध आता है, उसमें यदि कोई ग्वाला जल मिला देता है तो उस ग्वालेके पशुके थनसे दूधके स्थानपर रक्त निकलने लगता है। रक्त तभी बन्द होता है, जब वह ग्वाला भगवान्के चरणोंमें जाकर अपने कृत्यका पश्चात्ताप करे और भविष्यके लिए प्रतिज्ञा करे। इन सब किंवदन्तियोंमें कहां तक सचाई है यह विचारणीय है। कुछ किंवदन्तियाँ तो सत्यसे बहुत ही दूर हुई लगती हैं। उन तक हमारी सहज आस्था नहीं पहुँच पाती।
उपर्युक्त प्रान्तोंके अतिशय क्षेत्रोंके नाम इस प्रकार हैं
-ऋषभदेवके केशरियाजी, नागफणी पार्श्वनाथ, अन्देश्वर पार्श्वनाथ, वमोतर शान्तिनाथ, बिजौलिया, केशोराय पाटन, पद्मपुरा, श्रीमहावीरजी, चमत्कारजी, चाँदखेड़ी, झालरापाटन, तिजारा।
-घोघा, महुआ, अंकलेश्वर, सजोद ।
-दहीगांव, कुण्डल, बाहुबली, तेर, सावरगांव, कासार आष्टा, पैठण, नवागढ़, जिन्तूर, शिरडशहापुर, असेगांव, अन्तरिक्ष पाश्वनाथ, वाढोणा रामनाथ, भातकुली, रामटेक । कलातीर्थ
इन प्रान्तोंमें कई स्थान ऐसे हैं जो अपने शिल्प, स्थापत्य और कलाके कारण विख्यात हैं। जैसे चित्तौड़का कीर्तिस्तम्भ अपनी अनुपम रचना-शैली, सूक्ष्म एवं कलापूर्ण शिल्प और अपनी उत्तुंगताके कारण भारतीय शिल्पमें अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाये हुए है। संसारके किसी स्तम्भमें सूक्ष्म कलाको दृष्टिसे इसकी तुलना एवं स्पर्धा करनेकी क्षमता नहीं है। भारतीय कलाविदोंकी मान्यतानुसार चितौड़ दुर्ग में स्थित जयस्तम्भके निर्माणको कल्पनाके मूलमें यह कीर्तिस्तम्भ ही था। जयस्तम्भ कीर्तिस्तम्भके लगभग दो शताब्दी पश्चात् निर्मित हुआ। किन्तु कलाकी दृष्टिसे वह भी इसकी समता नहीं कर सकता। कीर्तिस्तम्भ वस्तुतः एकाकी नहीं है, बल्कि वह अपने सम्मुख