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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
तारंगा - यहाँसे वरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ मुनियोंने निर्वाण प्राप्त किया था । शत्रुंजय - यहीं पर दुर्योधनके भागिनेय कुमुंधरने तपस्यारत पाँचों पाण्डवोंपर अपने मातृकुलके विनाशका प्रतिशोध लेनेके लिए भयानक उपसर्ग किये। उस शठने उन निस्पृह योगियों के विभिन्न अंगोंमें तप्त लोहे के आभूषण पहनाकर घोर यातना देनेका प्रयत्न किया। उन योगियोंके शरीर दग्ध हो गये, किन्तु उन आत्मनिष्ठ मुनियोंने शुक्लध्यान द्वारा कर्मोंको दग्ध कर दिया । अपने उत्कृष्ट ध्यान द्वारा युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनने कर्मोंका पूर्ण नाश करके मुक्ति प्राप्त की । इनके अतिरिक्त यहाँ द्रविड़ देशके राजा और आठ करोड़ मुनियोंने भी सिद्ध पद प्राप्त किया था । पावागढ़ - रामचन्द्रजी के पुत्र लवणांकुश और मदनांकुशने मुनि अवस्थामें यहाँ आकर घोर तप द्वारा कर्म-मल नष्ट करके मुक्ति-लाभ किया था । यहाँसे लाट नरेश और पाँच करोड़ मुनियोंको मोक्ष प्राप्त हुआ ।
गजपन्थ - बलभद्र ९ होते हैं । उनमें ७ बलभद्रोंने यहांसे निर्वाण प्राप्त किया था । उनके नाम हैं-१ सुदर्शन, २ नन्दि, ३ नन्दिमित्र, ४ सुप्रभ, ५ सुधर्म, ६ अचल और ७ विजय । इनके अतिरिक्त ८ करोड़ मुनियोंको भी यहाँ से मुक्ति प्राप्त हुई थी ।
मांगीतुंगी - श्रीरामचन्द्रजी, हनुमान्, सुग्रीव, गवय, गवाक्ष, नील, महानील आदि ९९ करोड़ मुनियोंने यहां से मुक्ति प्राप्त की ।
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कुलगिरि – यहाँ मुनि कुलभूषण और मुनि देशभूषण तपस्या करते थे । अपने वनवास - कालमें रामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मण सहित यहाँ पधारे । उन दिनों एक असुर इन मुनियोंपर घोर उपसगं कर रहा था । नगरवासी उसके भयसे त्रस्त थे और रात्रि होनेसे पूर्व वे नगरको छोड़कर अन्यत्र भाग जाते थे । रामचन्द्र और लक्ष्मणने उस पर्वतपर जाकर असुरको भगाया और मुनियोंका उपसर्गं दूर किया। तभी उन मुनियोंको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवोंने आकर गन्धकुटीकी रचना की । कुछ काल पश्चात् उन दोनों मुनियोंको यहींसे निर्वाण प्राप्त हुआ ।
इन सिद्धक्षेत्रों में गजपन्थको वास्तविक स्थितिके सम्बन्ध में कुछ विद्वानोंने सन्देह प्रकट किया है । उनका तर्क है कि वर्तमान स्थानपर इस क्षेत्रकी स्थापना लगभग ८०-९० वर्षं पूर्वं की गयी थी । यहाँ कोई ऐसा पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिला, जिसके आधारपर माना जा सके कि वस्तुतः गजपन्थ क्षेत्र यहींपर था ।
इन विद्वानोंके प्रति हमारे हृदय में आदरभाव है । किन्तु उनका ध्यान हम यहाँकी उन गुफाओंकी ओर आकर्षित करना चाहते हैं जिन्हें चामरलैनी कहा जाता है । यद्यपि सौन्दर्यप्रिय भक्तोंने इन ऊबड़-खाबड़ गुफाओंको पलस्तर आदि द्वारा सुरुचिपूर्ण बनानेका प्रयत्न किया है और यहाँको प्राचीन मूर्तियों के ऊपर लेप चढ़ाकर उनके सौन्दयंसे निखार दिया है, किन्तु पलस्तर और गुफा और मूर्तियों की कला और प्राचीनताको ढक दिया है। इससे वे आधुनिक लगने लगी हैं । वस्तुतः चामरलैनी गुफाओंका इतिहास ईस्वी सन्से भी पूर्वका है । इनका निर्माण मैसूर के चामराजने कराया था और उनमें जैन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी थी । ये चामराज पौराणिक साक्ष्य के आधारपर ईसा पूर्व ९०० के बताये जाते हैं । पुरातत्त्ववेत्ता सम्भवतः इन गुफाओंका यह काल स्वीकार न करें, किन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि ये गुफाएँ प्राचीन हैं । इस क्षेत्रसे लगभग १० मील दूर पाण्डव गुफाएं हैं। अंजनेरीमें भी गुफाएँ और भग्न जिनालय हैं । इन गुफाओं में प्रतिमाएँ भी हैं । ये ११-१२वीं शताब्दीकी मानी गयी हैं। हमारा अनुमान है कि चामरलेनी गुफाएँ भी इसी काल की या इससे कुछ पूर्वको होंगी । यहाँकी कई मूर्तियों का भी काल यही अनुमानित होता है ।
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