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जैन दृष्टिसे राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र अपरान्तक-उत्तरी कोंकण प्रदेशको अपरान्तक कहते थे। इसकी राजधानी सरिक (वर्तमान सपारा) थी। भारतका पश्चिमी समुद्री तटे अपरान्तक कहलाता था। रघुवंशके अनुसार यह सह्य (पश्चिमी घाट) और समुद्रका मध्यवर्ती प्रदेश था। यह माही नदीसे गोऔ तक फैला हुआ था।
राजस्थान-गुजरात-महाराष्ट्रमें जैनतीर्थ . राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्त संयुक्त रूपसे तीर्थक्षेत्रोंकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध हैं। इन प्रान्तोंके तीर्थक्षेत्र उत्तर प्रदेश, बिहार-बंगाल-उड़ीसा और मध्यप्रदेशके तीर्थक्षेत्रोंकी अपेक्षा संख्याकी दृष्टिसे तो अधिक हैं ही, पुरातत्त्व और कलाकी दृष्टिसे भी अत्यधिक सम्पन्न हैं। प्रस्तुत ग्रन्थमें दिये गये तीर्थ-परिचयकी दृष्टिसे राजस्थानमें १६, गुजरातमें १० और महाराष्ट्रमें २६ इस प्रकार कुल ५२ तीथं हैं। इन तीर्थक्षेत्रोंको हम सुविधाके लिए ४ भागोंमें विभाजित कर सकते हैं-(१) सिद्धक्षेत्र, (२) अतिशयक्षेत्र, (३) कला-तीर्थ और (४) भट्टारक पीठ-स्थान । यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि यहाँ भट्टारक पीठ-स्थानोंके पृथक् उल्लेख करनेका विशेष कारण है क्योंकि इन प्रान्तोंमें भट्टारकोंकी विभिन्न परम्पराओंके पीठ अनेक स्थानोंपर थे। अनेक स्थानोंपर इन भट्टारकों द्वारा प्रतिष्ठित मन्दिर और मूर्तियां अब भी उपलब्ध होती हैं। सिद्धक्षेत्र
सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र उन स्थानोंको कहा जाता है, जहां किसी तीर्थकर या मुनिको निर्वाण प्राप्त हुआ हो । इन तीनों प्रान्तोंमें सिद्धक्षेत्रोंकी कुल संख्या ७ है। इनके नाम इस प्रकार हैं-गिरनार, तारंगा, शत्रुजय, पावागढ़, गजपंथ, मागीतुंगी और कुन्थलगिरि। इनमें से प्रारम्भके ४ क्षेत्र गुजरात प्रान्तमें और शेष ३ क्षेत्र महाराष्ट्र प्रान्तमें हैं। इन सबमें गिरनारका सर्वाधिक महत्त्व है क्योंकि वहाँ बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ भगवान् मुक्त हुए थे। शेष स्थानोंसे मुनियोंको निर्वाण प्राप्त हुआ था।
गिरनार यहाँ भगवान् नेमिनाथके तीन कल्याणक हुए थे-दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक । भगवान्की प्रथम दिव्यध्वनि यहीं खिरी थी, यहीं उनका प्रथम और अन्तिम समवसरण लगा तथा यहींपर उन्होंने धर्म-चक्र प्रवर्तन किया। वे अनेक बार यहाँ पधारे और उनकी कल्याणमयी देशनासे अनेक भव्य जीवोंका कल्याण हुआ। इनके अतिरिक्त यहाँसे प्रद्युम्नकुमार, शम्बुकुमार, अनिरुद्धकुमार, वरदत्त आदि बहत्तर करोड़ सात सौ मुनियोंने मुक्ति प्राप्त की थी। यहाँ अम्बादेवीका विख्यात मन्दिर था। इस देवीके अतिशयोंकी बड़ी ख्याति थी। यह देवी नेमिनाथ तीर्थंकरको सेविका और शासन देवी कहलाती है। आचार्य धरसेन यहाँकी चन्द्रगुफामें तपस्या करते थे। यहींपर उन्होंने भूतवलि और पुष्पदन्तको सम्पूर्ण श्रुतज्ञान दिया था, जो उन्हें परम्परागत आचार्य-परम्परासे प्राप्त हुआ था। ताम्रलेख और शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि यहाँ ई. पूर्व ११४० में भगवान् नेमिनाथके मन्दिर बन गये थे तथा मौर्यकालमें भी यहां नेमिनाथ-जिनालयका निर्माण हुआ था।
१. R.G. Bhandarkar. २. भगवानलाल इन्द्रजी ३. Bombay Gazette, Vol. 1, Part 1, p. 36, note 8.