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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ २. पाश्वनाथ मन्दिर-यहाँ ३ फीट ऊंचे पाषाण-फलकमें श्वेतवर्ण पार्श्वनाथ मूर्ति खड्गासन मुद्रामें अवस्थित है। परिकर परम्परागत है। एक दूसरी मूर्ति संवत् १९२० की इसी प्रकारको है । इसमें केवल फण नहीं है । दायीं ओर दीवालमें एक प्राचीन पद्मासन मूर्ति है।
पृष्ठ भागमें बायीं वेदीपर २ फीट ३ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है तथा दायीं वेदीमें २ फीट ९ इंचवालो खड्गासन मूर्ति है । स्तम्भोंमें भी मूर्तियां बनी हुई हैं । मन्दिरके शिखरमें भी मूर्ति है।
ये दोनों मन्दिर प्राचीन हैं।
३. उक्त मन्दिरके ऊपरी भागमें यह मन्दिर बना हुआ है। इसमें श्वेत पाषाणकी संवत् १९६७ में प्रतिष्ठित मूर्ति है। इसका लांछन स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ता। यह १ फुट ३ इंच ऊंची है।
४. पाश्वनाथ मन्दिर-थोड़ा ऊपर चलनेपर पूर्वोत्तर कोणमें पाश्वनाथकी श्वेत वर्णकी संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित १ फुट ३ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है।
मन्दिर नं. ३-४ के सामने १९ सीढियां चढकर फिर उतरना पडता है।
५. सुमतिनाथ मन्दिर-भगवान् सुमतिनाथकी १ फुट ७ इंच ऊंची श्वेतवर्णकी पद्मासन मूर्ति है। इसके ऊपर श्रीवत्स, लेख और लांछन नहीं है। यह मूर्ति १३-१४वीं शताब्दीकी अनुमानित की जाती है।
६. सभामण्डपमें दो स्तम्भोंके मध्य बनी हुई वेदोपर श्वेत वर्णकी ३ पद्मासन प्रतिमाएं विराजमान हैं जो क्रमश २ फीट ५ इंच, २ फोट २ इंच और १ फुट १० इंच अवगाहनाकी हैं । ये संवत् १६९० में भट्टारक धर्मचन्द्रने प्रतिष्ठित करायीं। बायीं ओरकी प्रतिमाके सिरपर पाषाणछत्र है। कन्धोंपर लताका अंकन है। मध्य-मूर्तिकी चरण-चौकीपर अलंकरण है। वेदोके बगलमें क्षेत्रपाल हैं।
७. नेमिनाथ मन्दिर-यहां देशी श्याम पाषाणकी ३ पोट ११ इंच ऊंची नेमिनाथकी पद्मासन मूर्ति है। मूर्ति-लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् ९०४ में हुई थी। वक्षपर श्रीवत्स नहीं है। कणं स्कन्धस्पर्शी हैं। केशोंकी तीन लड़ियां बनी हुई हैं। इस वेदीके पीछे ५ वेदियां खाली हैं।
८. पद्मप्रभ मन्दिर-पद्मप्रभ भगवान्की ५ फीट ९ इंच उत्तुंग श्याम वर्णकी पद्मासन प्रतिमा है। सिरके ऊपर छत्रत्रयी है। श्रीवत्स नहीं है। कान छोटे हैं। पष्ठ भागमें दो वेदियाँ खाली पड़ी हैं।
९. थोड़ा आगे बढ़नेपर यह मन्दिर है। यह आदिनाथ मन्दिर कहलाता है। इसमें आदिनाथ भगवान्की १ फुट ८ इंच ऊंची संवत् १९१० में प्रतिष्ठित श्वेत वर्णकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है।
इसके पृष्ठ भागमें जलप्रपात है जहां १०० फीट ऊपरसे जल गिरता है। यह दृश्य दर्शनीय है। प्रपातके बगलमें बायीं ओर गुहा-मन्दिर है। यही मेंढागिरि मन्दिर कहलाता है। इस जलप्रपातके निकट इस गुहाके सम्मुख ही मेढ़ा गिरा था, जिसे एक मुनिराजने णमोकार मन्त्र सुनाया था और वह उसके प्रभावसे देव बना था। इसी घटनाकी स्मृतिस्वरूप इस पर्वतका नाम मेंढागिरि हो गया।
१०. मेंढागिरि मन्दिर-कहते हैं, इस गुहा-मन्दिरके सामने मण्डप बनाया गया था। किन्तु दूसरे दिन ही प्रातः वह मण्डप गिरा हुआ मिला। गुहा-मन्दिर पुर्वाभिमुखी है । इस मन्दिरमें प्रवेशके लिए तीन द्वार बने हुए हैं। इनमें दो द्वार बन्द हैं। इनके आगे पूर्वोक्त मण्डपके पाषाण बिखरे पड़े हैं। मध्य द्वारके ऊपर पांच अहंन्त मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मध्य मूर्तिके नीचे दो सिंह