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________________ महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ ३२३ किन्तु तवारीख अगजदियाके अनुसार अब्दुल रहमान गजनीका बादशाह नहीं, गजनवीका भानजा था। गजनवीने फौज देकर उसे विदर्भपर चढ़ाई करने भेजा था। जब उसका विवाह हो रहा था, तभी ऐल श्रीपाल राजाके आक्रमणकी खबर पाकर शादी छोड़कर दूल्हाके वेषमें ही युद्ध करने चला और युद्धमें मारा गया। यह घटना सन् १००१ की है। इस राजाने कई स्थानोंपर जैन-मन्दिरों और गहा-मन्दिरोंका निर्माण कराया था। अन्तरिक्ष पाश्वनाथ, मुक्तागिरि आदि क्षेत्रोंपर मन्दिरोंका निर्माण कराया, ऐलौरामें गुफाओंका निर्माण कराके अत्यन्त कलात्मक ढंगसे जिन-मूर्तियां उत्कीर्ण करायी थीं। रहमानके पश्चात् अलाउदीन खिलजीने सन् १२९४ में ऐलिचपुरपर प्रबल आक्रमण किया और नगरपर अधिकार कर लिया। मुक्तागिरिमें राजा ऐलने मूल्यवान् हीरे-जवाहरात और मतियां कहां छिपाये थे. यह आज तक ज्ञात नहीं हो सका। मन्दिर क्रमांक २० पश्चिमी पहाड़ीपर है। यह अन्य मन्दिरोंकी अपेक्षा प्राचीन है। इसे पुराना मुक्तागिरि कहते हैं। सो फुट ऊँचा जल-प्रपात इस मन्दिरके बिलकुल निकटसे ही गिरता है। इस मन्दिरके सभामण्डपके बीचमें एक पाषाणपर शतरंज बना हुआ है। सम्भवतः और स्थानोंपर भी ऐसे ही शतरंज बने हुए हैं। लोगोंका विश्वास है कि राजा ऐलके छिपाये हुए धनके संकेत चिह्नोंके रूपमें ये शतरंज बनाये गये होंगे। भट्टारक पद्मनन्दीकी समाधि विक्रम संवत् १८७६ में भट्टारक पद्मनन्दी यात्राके निमित्त यहां पधारे। यहाँके प्राकृतिक सौन्दर्य और शान्तिसे आकर्षित होकर वे यहां कुछ दिन रहे और उन्होंने चक्रेश्वरी देवीकी आराधना की। उनकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीने वर मांगनेके लिए कहा। भट्टारकजी ने कहा, "मुझे आपका दर्शन आपके वास्तविक रूपमें चाहिए।" देवीने कहा-"तुम और कुछ मांग लो। जो मांगोगे, वह मिलेगा। मेरा दर्शन तुम सहन नहीं कर सकोगे। मेरा तेज असह्य है।" किन्तु भट्टारकजी अपनी जिदपर अड़े रहे । फलतः देवीको दर्शन देने पड़े और भट्टारकजीका वहीं स्वर्गवास हो गया। उनकी स्मृतिमें खरपी नामक ग्राममें उनकी समाधि और चरण-चिह्न बने हुए हैं । यहाँ मन्दिर और धर्मशाला भी हैं जो सड़क किनारे ही हैं। खरपी गांव अचलपुर और मुक्तागिरिके मध्यमें अवस्थित है। क्षेत्र-दर्शन पर्वतपर चढ़ने और उतरनेके अलग-अलग मार्ग हैं। पर्वतपर धर्मशालाके निकट नालेसे चढ़ाई प्रारम्भ होती है । १६-१७ सीढ़ियां चढ़नेपर एक ऊँचे स्थानपर शिखरबद्ध गुमटी बनी है। इसमें मुनि महेन्द्रसागरको संवत् १९९७ की पादुका है। १३८ सीढ़ियां चढ़नेपर कुछ सपाट मार्ग, पश्चात् सीढ़ियां और पुनः सपाट मागं मिलता है। यहाँके मन्दिरोंका विवरण इस प्रकार है १. पाश्वनाथ मन्दिर-यहां चार स्तम्भोंपर आधारित मण्डपमें भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण पाषाणको ३ फीट उत्तुंग और संवत् १९६७ में प्रतिष्ठित पद्मासन मूर्ति है। स्तम्भोंमें एकएक पद्मासन मूर्ति उत्कीर्ण है। मण्डपके पृष्ठ भागमें बायीं ओरकी वेदीमें देशो पाषाणकी पाश्वनाथ मूर्ति विराजमान है। फण अधूरा बना है। वक्षपर श्रीवत्स नहीं है। मूर्ति सम्भवतः ७-८वीं शताब्दीकी है । दायीं ओरकी वेदीमें १ फुट ९ इंच ऊँची सर्वतोभद्रिका है।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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