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________________ ३२० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ 'द्रोणीमति प्रबलकुण्डलमेढ़के च' यह पद दिया गया है। 'बोधपाहुड़' की २७वीं गाथाकी श्रुतसागरी टीकामें भी इसका नाम मेंढ़ गिरि दिया है। प्राकृत निर्वाण-भक्तिमें भी मेंढागिरि नाम मिलता है। भट्रारक गणकीर्तिने मराठी भाषाकी तीर्थवन्दनामें 'मेढगिरि आहढ कोडि मनि सिद्धि पावले त्या सिद्धासि नमस्कारू माझा' द्वारा मेंढगिरिके साढ़े तीन करोड़ सिद्धि प्राप्त मुनियोंको नमस्कार किया है। किन्तु ज्ञानसागर, सुमतिसागर, चिमणा पण्डित, सोमसेन, जयसागर आदिने भाषा ग्रन्थोंमें इस क्षेत्रका नाम मुक्तागिरि दिया है। इससे लगता है कि इस क्षेत्रका प्राचीन नाम 'मेंदगिरि रहा होगा, बादमें इसे मुक्तागिरि कहने लगे। इन नामोंके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहत प्रचलित है। प्राचीन काल में एक मनि मक्तागिरि पर्वतके जलप्रपातके निकट बैठे तपस्या कर रहे थे। जलप्रपातके ऊपर एक मेंढा चरता हुआ आया और पैर फिसल जानेसे मुनिके निकट आ गिरा। मुनिने मरणासन्न मेंढाको णमोकार मन्त्र सुनाया। वह शान्त भावोंसे मरकर देव हुआ। उस देवने इस पर्वतपर मोतियोंकी वर्षा की। वर्षा-स्थल ४०वें मन्दिरके निकट बताया जाता है। इसलिए उस मन्दिरको मेंढसगिरि कहते हैं । और मुक्ताओंकी वर्षा हुई थी, इसलिए इस क्षेत्रको मुक्तागिरि कहते हैं। उक्त घटनाका संकेत मराठी भाषाके सुप्रसिद्ध कवि चिमणा पण्डितने 'तीर्थ-वन्दना' में इस प्रकार दिया है-'मेंढा उद्धरीला मुगता गिरोसी।' इनका समय १७वीं शताब्दीका उत्तरार्ध माना जाता है । इससे इतना तो कहा हो जा सकता है कि आजसे ३०० वर्ष पूर्व भी उक्त किंवदन्ती प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त कवि राघव ( १८वीं शताब्दी ), कवीन्द्रसेवक ( १९वीं शताब्दी) ने भी इस घटनाका उल्लेख किया है। निर्वाण-क्षेत्र मुक्तागिरि निर्वाण-क्षेत्र या सिद्ध-क्षेत्र है । यहाँसे साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं, जैसा कि निर्वाण-काण्डमें बताया है अच्चलपुरवरणयरे ईसाणभाए मेढगिरि सिहरे। आहुट्ठयकोडीमो णिव्वाणगया णमो तेसि ॥१६।। अर्थात् अचलपुर नगरकी ईशान दिशामें स्थित मेदगिरिके शिखरसे साढ़े तीन करोड़ मुनियोंको मुक्ति प्राप्त हुई थी। वर्तमानमें यह मुक्तागिरि या मेढागिरि कहलाता है और यह अचलपुर ( ऐलिचपुर ) के ईशान कोणमें १३ कि. मी. दूर है। निर्वाणकाण्डका अनुकरण करते हुए अनेक लेखकोंने इस क्षेत्रको निर्वाण-क्षेत्र स्वीकार किया है तथा उसके सम्बन्धमें अनेक ज्ञातव्य बातोंपर प्रकाश डाला है। भट्रारक ज्ञानसागर, जो सोलहवीं शताब्दीके अन्त और सत्रहवीं शताब्दीके प्रारम्भमें हए थे. उन्होंने इस क्षेत्रके सम्बन्धमें लिखा है 'मुक्तागिरि माहंत सिद्धक्षेत्र अतिसंतह । चैत्यतणी दो पंक्ति पूज रचे गुणवंतह । धमसाल गुणमाल मध्य जलधार वहति । यात्रा करवा काज पंच रात्रि निवसंति ।। विविध चैत्य देखि करी हर्ष घणो मन ऊपजे । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति क्रम क्रम शिवपूरि संचरे' ॥१४॥
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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