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महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थ
३१५ ही झाड़ियोंके भीतर एक मनोज्ञ जिन-प्रतिमा प्राप्त हुई। सेठजीने भक्तिपूर्वक प्रतिमाके दर्शन किये। उन्होंने राजाज्ञा लेकर झाड़ियोंको साफ कराया और ध्वस्त मन्दिरका जीर्णोद्धार कराया। इस घटनाके पश्चात् वहाँको प्रसिद्धि बढ़ी और यह तीर्थ पुनः प्रकाशमें आया। शान्तिनाथकी वह मूर्ति जेन मन्दिरमें विराजमान है। रामगिरिको वास्तविक स्थिति ___आजकल रामगिरि नामक कोई पर्वत नहीं मिलता। उससे मिलते-जुलते नाम मिलते हैं । जैन परम्परामें रामगिरिकी प्रसिद्धि रामचन्द्रजी द्वारा वहांपर सहस्रों जिनालयोंके निर्माणके कारण रही है। महाकवि कालिदासके मेघदूत काव्यके कारण भी रामगिरिकी ख्याति बहुत रही है। किन्तु रामगिरि कहाँ है, इसके बारेमें विद्वानोंमें बहुत मतभेद हैं। कुछ विद्वानोंकी मान्यता है कि मध्यप्रदेशकी भूतपूर्व सरगुजा रियासतके अन्तर्गत रामगढ़ नामक पर्वत ही रामगिरि है। राम, सीता और लक्ष्मणने यहां वनवासके समय स्नान किया था, ऐसी परम्परागत जनश्रुति है। कहते हैं, यहां एक शिलापर रामचन्द्रजीके चरण चिन्ह अबतक बने हए हैं। यहाँ भग्नावशेष भी प्रचुर मात्रामें मिलते हैं। इस पहाड़ीपर सीतावेंगा तथा जोगीमारा नामक गुफाओंमें ईसासे तीन सौ वर्ष पूर्वके खुदे हुए शिलालेख विद्यमान हैं। इन सब प्रमाणोंसे मालूम होता है कि यह स्थान अत्यन्त प्राचीन है।
एक दूसरा मत है कि नागपुरका निकटवर्ती रामटेक ही रामगिरि है। यह स्थान भी बहत प्राचीन है। यहाँ वाकाटक नरेश द्वितीय प्रवरसेनके समयका एक ताम्रपत्र मिला है। और इसी राज्यान्तर्गत विदर्भ देशके ऋद्धपुर या राधापुरमें मिले हुए ताम्रपत्रपर 'रामगिरिस्वामिनः पादमूलात्' ऐसा उल्लेख है। उसके पास ही वाकाटकोंकी नन्दिवर्धन राजधानी थी। द्वितीय चन्द्रगुप्तकी पुत्री तथा द्वितीय प्रवरसेन ( वाकाटक वंशी ) को माता प्रभावती गुप्त भगवान् रामचन्द्रकी पादुकाओंकी पूजाके लिए रामटेक जाती थीं, यह बात उसके ऋद्धपुर या राधापुरके ताम्रपत्रमें लिखी है।
तीसरी मान्यता यह है कि आन्ध्रप्रदेशके विजगापट्टम जिलेमें विजयानगरम्के समीपका रामकौण्ड पवंत ही रामगिरि होना चाहिए । वहाँ अनेक जैन-गुहा मन्दिरोंके अवशेष हैं । सम्भवतः यहींपर उग्रादित्य आचार्यने कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रन्थकी रचना की थी। आचार्यने यह ग्रन्थ वेंगी नरेशके आधीन त्रिकलिंग प्रदेशके ऊँचे रामगिरिपर लिखा था, जो सम्भवतः यही हो सकता है।
इन तीनों स्थानों में से रामटेक ही वास्तविक रामगिरि प्रतीत होता है। पद्मपुराण, पउमचरिउ और हरिवंशपुराणके उल्लेखोंसे भी इसकी पुष्टि होती है। हरिवंशपुराणमें बताया है कि पाण्डव कोशल देशसे रामगिरि पहुंचे। यहां कोशलसे आशय दक्षिण कोशलसे है। वे दक्षिण कोशल ( आधुनिक छत्तीसगढ़ आदि ) से रामगिरि पहुंचे। पउमचरिउ और पद्मपुराणके अनुसार रामचन्द्रजीने रामगिरि (वंशगिरि) से दण्डकारण्यकी ओर जानेका विचार किया जो कर्णरवा (महानदी ) नदीसे आगे फैला हुआ था। इस दृष्टिसे देखें तो रामटेक ही कोशल और दण्डकारण्यके मध्यमें पड़ता है।
रामटेक दण्डकारण्यके उत्तरमें है। महाकवि भवभूतिके 'उत्तररामचरित'से भी इसकी पुष्टि होती है। हिन्दू अनुश्रुतिके अनुसार रामटेकपर वह स्थान अब भी है, जहां शूद्र शम्बूकने १. कालिदास, महामहोपाध्याय डॉ. वासुदेव विष्णु मिराशी, पोपुलर प्रकाशन बम्बई, पृ. ११०-१११ ।