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________________ ३१४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उपलब्ध नहीं होती। किन्तु इस क्षेत्रके सम्बन्धमें १६-१७वीं शताब्दीके कुछ भट्टारकोंके ग्रन्थों अथवा तीर्थवन्दन संग्रहोंमें कुछ उल्लेख अवश्य प्राप्त होते हैं। कारंजाके सेनगणके भट्टारक जिनसेन (सन् १६५५-१६८५ ) के सम्बन्धमें एक हस्तलिखित गुटके में ऐसी सूचना प्राप्त होती है कि उन्होंने गिरनार, सम्मेदशिखर, रामटेक तथा माणिक्य स्वामीकी यात्राएँ की थीं। उनके द्वारा सोयरासाह, निवासाह, माधव, गनवा और कान्हा इन पांच व्यक्तियोंको संघपति पद प्राप्त हुआ था। इनमें कान्हा संगवीको तो रामटेकमें ही संघपतिका तिलक किया गया था। भट्टारक ज्ञानसागरजी ( सोलहवीं शताब्दीका अन्तिम चरण और सत्रहवीं शताब्दीका प्रारम्भ ) ने अपनी रचना 'सर्वतीर्थ वन्दना' के दो छप्पयों (संख्या ९५-९६) में रामटेकके शान्तिनाथ भगवान्की बड़ी प्रशंसा की है तथा उन्हें मनवांछित फलको पूर्ण करनेवाला बतलाया है। लगता है, रामटेकमें शान्तिनाथ भगवान्की सातिशय प्रतिमा थी। उसीके कारण लोग यहाँ मनौती मनाने आते थे। इसलिए यह अतिशय क्षेत्र कहलाने लगा। भट्टारक हेमकीर्तिके शिष्य मकरंदने तो मराठी भाषामें 'रामटेक' छन्द ही लिखा है। इससे क्षेत्रके सम्बन्धमें कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं। जैसे-“यहाँ शान्तिनाथ भगवान्की तीन पुरुष ऊँची पश्चिमाभिमुखी मूर्ति विराजमान है। मुख्य मन्दिरके दोनों ओर क्षेत्रपाल है। आगे वेदो और प्रतिशाला है । यहाँका चौक लेकुर संघवीने; सभामण्डप और चारों ओरकी दीवार लाड सज्जन ने, जिनका उपनाम गाहानकारी था, बनवायी। आंगनमें एक कुआं बनवाया। आगे इमलोके पेड़ों के बीच में भी एक कूओं है। पानी मोठा है। मन्दिरके पोछे तालाब, आधारवन, कुआँ, तातोवाकी ध्यान-मठी है। आगे भवानीका मन्दिर है। कार्तिक पूर्णिमाको यहाँ वार्षिक यात्रा होती है। यहाँको पहाड़ीपर राम और सीताके मन्दिर हैं। तालाबके पास कैकेयी और गौतमके मन्दिर हैं। नागार्जुन ऋषिका गुप्त स्थान है। सिंदूर तीर्थके आगे आँगन है। यहां बालाजीकी मूर्ति तीन मन वजन की है। यह क्षेत्र देवगढ़ राज्यके दहे परगनेमें है। यहां बलात्कारगणके भट्टारक विद्याभूषणका शिष्यवर्ग रहता है। उनमें हेमकीर्तिजी इस वन्य प्रदेशके बादशाह कहे जाते हैं। यह तीर्थ प्रकाशमें कैसे आया, इसके सम्बन्धमें एक रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। कहते हैं कि दो सौ वर्ष पहले नागपुर नरेश श्री आपा साहब भोंसले नगरमान्य श्री वर्धमान सावजीके साथ रामचन्द्रजीके मन्दिरके दर्शन करनेके लिए रामटेक पवंतपर गये । वर्धमान सावजी दिगम्बर जैन थे। दर्शन करनेके पश्चात् महाराजने भोजन किया। किन्तु महाराजके आग्रह करनेपर भी सेठजीने भोजन नहीं किया। महाराजने भोजन न करनेका कारण पूछा तो सेठजीने उत्तर दिया-"महाराज' मैं जैन हूँ। मैं जिनेन्द्रदेवके दर्शन किये बिना भोजन नहीं करता है, ऐसा मेरा नियम है।" सेठजीको धर्मनिष्ठासे महाराज बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने अपना गजराज देकर सेठजीसे कामठी जाकर जिनेन्द्र दर्शन कर आनेके लिए कहा। सेठजी बोले-"महाराज ! यहाँ रामचन्द्रजीका मन्दिर है। रामचन्द्रजी जैनधर्मके प्रति बड़े आस्थावान् थे। उन्होंने यहां बहुतसे मन्दिर बनवाये थे, ऐसा हमारे शास्त्रोंमें लिखा है। इसलिए यहां आसपासमें जिनालय अवश्य होना चाहिए।" इसके लिए खोजबीन की गयी और रावटी लोगोंकी खोजके फलस्वरूप शीघ्र १. तीर्थवन्दनसंग्रह, संपादक डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, पृ. ९१-९२ । २. तीर्थवन्दनसंग्रह, प. ९७-९८ ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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