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महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ निर्मित कराये।
रामने वहां कुछ दिन ठहरकर लक्ष्मणसे कहा-'लक्ष्मण ! अब हमें अन्यत्र चलना चाहिए। सुनते हैं, यहाँसे दक्षिणमें एक कर्णरवा नदी है, जिसे पार करनेपर दण्डकारण्य मिलता है जो मनुष्योंके लिए अगम्य कहा जाता है।'
राम, लक्ष्मण और सीताने वह स्थान छोड़ दिया और दण्डकारण्यको चल दिये। चूंकि रामने वहाँ जिनालय बनवाये थे, अतः उस (वंशस्थगिरि ) का नाम रामगिरि हो गया।
रामचन्द्रजीने रामगिरिमें जिन जिनालयोंका निर्माण कराया था, वे पाण्डवोंके कालमें भी विद्यमान थे। इस सम्बन्धमें हरिवंश-पुराण (सर्ग ४६ ) का अधोलिखित अवतरण विशेष उल्लेखनीय है
"विश्रम्य तत्र ते सौम्या दिनानि कतिचित् सुखम् । याताः क्रमेण पुनागा विषयं कोशलाभिधम् ॥१७॥ स्थित्वा तत्रापि सौख्येन मासान् कतिपयानपि । प्राप्ता रामगिरि प्राग यो राम-लक्ष्मणसेवितः ॥१८॥ चैत्यालया जिनेन्द्राणां यत्र चन्द्रार्कभासुराः । कारिता रामदेवेन संभान्ति शतशो गिरी ॥१९॥ नानादेशागते व्यर्वन्द्यन्ते या दिने दिने ।
वन्दितास्ता जिनेन्द्राणां प्रतिमाः पाण्डुनन्दनः ॥२०॥ इसका आशय यह है कि पाण्डव कुछ दिन वहां ठहरकर कोशलदेशमें आये। कुछ माह आरामसे वहां ठहरकर वे रामगिरि पहुंचे जहां पहले राम और लक्ष्मण ठहरे थे। जहां रामचन्द्रजी द्वारा बनाये हुए सैकड़ों जिनालय पहाड़पर सूर्य-चन्द्रमाके समान देदीप्यमान अब भी विद्यमान हैं । प्रतिदिन नाना देशोंसे आ-आकर लोग उनकी वन्दना करते हैं। पाण्डवोंने जिनेन्द्रदेवकी उन प्रतिमाओंकी वन्दना की।
इस अवतरणसे दो बातें सिद्ध होती हैं-(१) रामचन्द्रजी द्वारा बनाये मन्दिर पाण्डवोंके कालमें मौजूद थे। (२) उन मन्दिरोंके कारण रामगिरि एक तीर्थ बन गया था और प्रतिदिन वहाँ बाहरके यात्री भारी संख्यामें आया करते थे।
इन अवतरणोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि रामगिरिका पूर्वनाम वंशगिरि था। वहाँ रामचन्द्रजोने अनेक जिन-मन्दिर बनवाये थे। उनके कारण पर्वतका नाम रामगिरि पड़ गया। इन मन्दिरोंके कारण ही यह तीर्थक्षेत्र के रूप में मान्य हो गया। पाण्डवोंने इन मन्दिरोंके दर्शन भी किये थे। इसके पश्चात् ये मन्दिर कब तक सुरक्षित रहे, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित सूचना १. तत्थेव वंससेले पउमाणत्तण नरवरिन्देणं ।
जिणवर भवणाई तओ निवेसियाइं पभ्याई ॥४०१९ २. अह अत्रमा कमाई भणिओ रामेण तत्थ सोमित्ती।
मोत्तूण इमं ठाणं अन्नं देसं पगच्छामो ॥ निसुणिज्जइ कण्णरवा महाणई तीए अत्थि परएणं ।
मणुयाण दुग्गमं चिय तरुवहलं दण्णयारण्णं ।४०। १२-१३ ३. रामेण जम्हा भवणोतमाणि जिणिदचन्दाण निवेसियाणि । तत्थेव तुंगे विमलप्पभाणि तम्हा जणे रामगिरी पसिद्धो ॥४०॥१६
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