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________________ ३०८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ द्रव्यतणा मोटा व्यापार, सदावर्त पूजा विवहार । जप तप क्रिया महोच्छव धणा, करि जिन सासन सोहाभणा ।।२७।। संवत सात सतरि सही, गढ़ गिरनारी जात्रा करी। लाख एक तिहां धन बावरी, नेमिनाथनी पूजा करी ॥२८॥ हेममुद्रा संघवच्छल कीओ, लच्छितणो लाहो तिहां लीओ। परवि पाई सीआलि दूध, ईषुरस उँनालि सूद्ध ॥२९|| एलाफूलिं वास्मां नीर, पंथी जननि पाई धीर । पंचामृत पकवाने भरी, पोषि पात्रज भगति करी ॥३०॥ भोज संघवी सुत सोहाभणा, दाता विनयी ज्ञानी धणा। अर्जुन संघवी पदारथ नाम, शीतल संघवी करि शुभ काम ॥३१॥" इसका सारांश यह है कि कारंजामें बडे-बडे धनी लोग रहते हैं और वहां जिन भगवानके मन्दिर हैं जिनमें दिगम्बर देव विराजमान हैं । वहां गच्छनायक ( भट्टारक ) हैं जो छत्र, सुखासन (पालकी ) और चँवर धारण करते हैं । शुद्धधर्मा श्रावक हैं जिनके यहां अपार धन है । बघेरवाल वंशके शृंगाररूप भोज संघवी बड़े ही उदार और सम्यक्त्वधारी हैं। वे जिन भगवान्को ही नमस्कार करते हैं। उनके कुलका आचार उत्तम है। उन्हें रात्रि-भोजनका त्याग है। नित्य ही पूजा-महोत्सव करते रहते हैं । भगवान्के आगे मोतियोंका चौक पूरते हैं और पंचामृतसे अभिषेक करते हैं । यह सब मैंने अपनी आँखोंसे देखकर कहा है। गुरु स्वामी ( भट्टारक ) और उनके पुस्तक-भण्डारका पूजन करते हैं। उन्होंने संघ निकाला, प्रतिष्ठा की, मन्दिर बनवाये और आह्लादपूर्वक बहुत-से तीर्थोंकी यात्रा की। कर्नाटक, कोंकण, गुजरात, पूर्व मालवा और मेवाड़से उनका बहुत बड़ा व्यापार चलता है। जिनशासनको शोभा देनेवाले सदावर्त, पूजा, जप, तप, क्रिया-महोत्सव आदि उनके द्वारा होते रहते हैं। संवत् १७०७ में उन्होंने गढ़ गिरनारकी यात्रा करके नेमि भगवान्की पूजा की, सोनेकी मोहरोंसे संघ-वात्सल्य किया और एक लाख रुपया खर्च करके धनका 'लाहा' लिया। प्याउओंपर शीतकालमें दूध, गर्मियोंमें गन्नेका रस और इलायचीवासित जल राहगीरोंको पिलाया और पात्रोंको भक्तिपूर्वक पंचामृत पक्वान्न खिलाया जाता है। भोज संघवीके पुत्र अर्जुन संघवी और शीतल संघवी भी बड़े दाता, विनयी, ज्ञानी और शुभ काम करनेवाले हैं। मुनि शीलविजयजीके इस वर्णनसे कारंजाके तत्कालीन जैन समाजकी सम्पन्न दशा और धार्मिक रुचिका स्पष्ट चित्र हमारे समक्ष आ जाता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि उस समय सम्पन्न लोग ऐसे धर्मात्मा भी होते थे जो भगवान्के समक्ष मोतियोंका चौक पूरते थे। शास्त्रोंमें इस प्रकारका वर्णन पढ़कर बड़ा अद्भत-सा लगता है किन्तु भोज संघवीका आँखों देखा चरित्र पढ़कर विश्वास हो जाता है कि शास्त्रोंका कोई विवरण अविश्वसनीय नहीं है। हिन्दू-तीर्थ कारंजाके नामकरणके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रचलित है। उसके अनुसार कहा जाता है कि प्राचीन कालमें यहाँ जंगलमें कारंज नामक एक ऋषि तपस्या करते थे। वे एक बार भयंकर रोगसे ग्रस्त हो गये । तब अम्बा देवीने उनकी दशासे दयार्द्र होकर एक सरोवरका निर्माण किया, जिसमें स्नान करनेसे ऋषि कुछ दिनोंमें ठीक हो गये। इस कारण यहां जो नगर बसा, उसका नाम कार्यरंजकपुर पड़ गया। कहते हैं, वह सरोवर अब भी विद्यमान है। इस सरोवरके
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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