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महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ
३०७ १२ फोटके एक शिलाफलकमें २४ तीर्थंकर उत्कीर्ण हैं। मध्यमें ऋषभदेवकी ४ फीट २ इंच ऊंची खड्गासन मूर्ति है। शेष २३ तीर्थंकरोंमें २१ पद्मासन और २ खड्गासन मुद्रा में हैं। नीचे यक्ष-यक्षीका अंकन है। फलक अत्यन्त कलापूर्ण है।
एक अन्य फलक ३ फोट ५ इंच उन्नत है। इसमें पद्मासन ऋषभदेवकी मूर्ति उत्कीर्ण है। सिरके पीछे भामण्डल, सिरके ऊपर छत्र और उनके ऊपर दुन्दुभिवादक हैं। उधर दोनों कोनोंपर पुष्पमाला लिये गन्धर्व हैं। भगवान के दोनों पाश्वोंमें चमरेन्द्र खडे हैं। अधोभागमें ऋषभदेवके यक्ष-यक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी हैं। चरण-पीठपर वृषभ लांछन अंकित है।
___एक और शिलाफलक है जो २ फोट ६ इंच ऊँचा है। इसमें पद्मासनस्थ आदिनाथकी मूर्ति है । परिकरमें भामण्डल, छत्र, ऊपर कीर्तिमुख है। शीर्ष भागमें दो पद्मासन तथा अधोभागमें दो खड्गासन मूर्तियां हैं। नीचे गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी हैं। चरण-चौकीपर ऋषभका लांछन वृषभ अंकित है।
ये मूर्तियाँ नागपुरके निकटवर्ती कण्डलेश्वर गाँवके मन्दिरसे लायी गयी हैं। ये ७-८वीं शताब्दीको प्रतीत होती हैं।
ऊपर एक कमरेमें २० प्राचीन मूर्तियाँ संरक्षित हैं। इनमें नवदेवताकी एक मूर्ति अद्भुत है। सत्रहवीं शताब्दीमें कारंजा
सत्रहवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें मुनि शोलविजयजीने गुजराती भाषामें 'तीर्थमाला' पुस्तककी रचना की थी। वे श्वेताम्बर सम्प्रदायके तपागच्छीय संवेगी साधु थे। उन्होंने चारों दिशाओं के तीर्थोंकी पैदल यात्रा की थी। तीर्थोपर उन्होंने जो कुछ देखा-सुना था, उसे गुजराती भाषामें पद्यबद्ध कर दिया था। अपनी इस यात्रामें उन्होंने दिगम्बर जैन तीर्थों की भी यात्रा की थी और उनका वर्णन एक तटस्थ दर्शककी भाँति निष्पक्ष रूपसे कर दिया। यात्रा करते हए वे कारंजा भी पधारे थे। उन्होंने वहाँ जो कुछ देखा, वह उन्होंने लिख दिया। उससे तत्कालीन कारंजा नगरके जैन समाजकी आर्थिक समृद्धि, धार्मिक आचार आदिपर प्रकाश पड़ता है। उन्होंने बघेरवाल जातिके भोज संघवी और उनके परिवारकी धर्मपरायणता और उनके वैभवका भी वर्णन किया है। उससे पता चलता है कि उस समय जैन समाजमें कैसे-कैसे उदार श्रीमन्त थे। वह विवरण इस भांति है
"एलजपुर कारंजानयर, धनवंतलोक वसि तिहाँ सभर । जिनमंदिर ज्योती जागता. देव दिगम्बर करि राजता ।।२१।। तिहाँ गच्छनायक दीगंबरा, छत्र सुखासन-चामरधरा। श्रावक ते सुद्धधरमी वसिइ, बहधन अगणित तेहनि अछइ ॥२२॥ बघेरवाल वंश-सिणगार, नामि संघवी भोज उदार । समकितधारी जिनने नमइ, अवर धरमस्यूं मननवि रमइ ॥२३॥ तेहने कुले उत्तम आचार, रात्री भोजननो परिहार । नित्यई पूजा महोच्छव करइ, मोतीचौक जिन आगलि भरइ ॥२४॥ पंचामृत अभिषेक घणी, नयणे दोठी ते म्हि भणी। गुरू सामी पुस्तक भंडार, तेहनी पूजा करि उदार ॥२५।। संघ प्रतिष्ठा ने प्रासाद, बहुतीरथ ते करि आल्हाद । कर्नाटक कुंकण गुजरात, पूरब मालव ने मेवात ॥२६।।