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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
इस प्रकार यहाँ तीन भट्टारक सम्प्रदायका एक-एक मन्दिर है । इन तीनों मन्दिरोंकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं । सेनगणके मन्दिर में पंचकल्याणक चित्रावली है, काष्ठासंघके मन्दिर में लकड़ी पर कलापूर्ण शिल्प है और बलात्कार गण मन्दिर में हस्तलिखित शास्त्रोंका बहुमूल्य भण्डार है। ये तीनों मन्दिर कारंजाकी जेन समाजके अधिकार में हैं । इस दृष्टिसे कारंजा अपने इस प्राचीन कलापूर्ण मूर्ति-वैभव और जैन शिल्प सम्पदासे सम्पन्न है तथा भट्टारकोंके सेनगणकाष्ठासंघ और बलात्कारगणकी गंगा-यमुना-सरस्वतीका संगम स्थल है । इन तीन धाराओंसे यह सिंचित भूमि जैन संस्कृतिकी दृष्टिसे अत्यन्त उर्वरा रही है ।
श्री महावीर ब्रह्मचर्याश्रम
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क्षुल्लक पार्श्वसागरजी ( वर्तमान में आचार्यं समन्तभद्रजी महाराज ) के मानस में तब विचार मन्थन चल रहा था - देशकी स्वतन्त्रता प्राप्ति और स्वतन्त्र देशकी स्वतन्त्रताकी रक्षा उन युवकों द्वारा ही निष्पन्न हो सकेगी, जो निष्ठावान्, सुसंस्कारी, शिक्षित और आत्मविश्वासी होंगे। ऐसे युवकों का निर्माण वर्तमान दूषित वातावरणसे सन्त्रस्त विद्यालयों में सम्भव नहीं है । इसके लिए ऐसे सरस्वती मन्दिरोंका निर्माण करना होगा, जिनके वातावरण में शुचिता, सौन्दर्य, शील, सेवा, अनुशासन और माँ सरस्वतीकी एकनिष्ठ आराधनाकी भावना समायी हो; जिनकी आत्मा सात्त्विक जीवन और उच्च विचारसे दीप्त हो और जिनकी बुद्धि शिक्षाकी आधुनिकतम उपलब्धियोंसे मण्डित हो ।
क्षुल्लकजी ने एक महत्त्वाकांक्षी व्यावहारिक योजना बनायी और कारंजाकी इस उर्वरा भूमिमें उसका बीज डाल दिया। देखते-देखते वह बीज एक विशाल वटवृक्ष बन गया । उस वृक्ष - की शाखाएँ सुदूर महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्यप्रदेश तक फैल गयीं। वही वटवृक्ष 'श्री महावीर ब्रह्मचर्याश्रम' कहलाता है । इस गुरुकुलकी अनेक स्थानोंपर गुरुकुल शाखाएँ हैं । ब्रह्मचर्याश्रम कारंजा नगरसे बाहर सुरम्य वातावरण में अवस्थित है। यहांसे निकले हुए स्नातक ही इन सब संस्थाओं का संचालन सेवा भावसे कर रहे हैं । यहाँकी लौकिक, नैतिक और शारीरिक त्रिविध शिक्षाकी पद्धति छात्रों को ज्ञान, शील और आत्मविश्वाससे समृद्ध करती है ।
महावीर मन्दिर - ब्रह्मचर्याश्रम में एक महावीर जिनालय है । इसमें मूलनायक भगवान् महावीरकी श्वेत वर्णकी पद्मासन प्रतिमा है जिसका आकार २ फीट ६ इंच है और यह संवत् १९९१ में प्रतिष्ठित हुई है । इसके अतिरिक्त गर्भगृहमें २ पाषाणकी तथा ७ धातुकी मूर्तियाँ हैं । बाहर बा ओर भगवान् चन्द्रप्रभकी ५ फोट १० इंच ऊँची पीतवर्णं खड्गासन प्रतिमा है और दायीं ओर शान्तिनाथ विराजमान हैं ।
इस मन्दिर में एक तल प्रकोष्ठ है जिसमें ४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं। ऊपर शिखर में शान्तिनाथकी दो मूर्तियाँ हैं ।
एक कक्ष मूर्ति-संग्रहालय है । इसमें बाहरसे लायी हुई प्राचीन मूर्तियाँ सुरक्षित हैं । अम्बिका देवीकी एक ४ फीट उत्तुंग मूर्ति है । देवीके कानों में कुण्डल, गलेमें हार और मौक्तिक माला, भुजाओंमें भुजबन्द, हाथोंमें कंकण, कटि में मेखला है । बायें हाथ की उँगली से अपने बालक शुभंकरको पकड़े हुए है । बालक आम्रफल लिये हैं । देवीके दायें हाथमें आम्रगुच्छक है । उसके पाश्वमें दूसरा बालक प्रीतिकर खड़ा है। भगवान् नेमिनाथका यक्ष गोमेद सिंहपर आरूढ़ है। दो चमरवाहिका देवियाँ सेवामें खड़ी हैं । यक्ष के सिरके ऊपर आम्र लटके हुए हैं। उनके मध्य में तीर्थंकर नेमिनाथ पद्मासनमें विराजमान हैं ।